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श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा,बुधवार, वि०स० २०६९
* मान-बड़ाई का त्याग *
गत ब्लॉग से आगे....... इसी
प्रकार जो सच्चे प्रेमी होते हैं, वे अपने प्रेमास्पद का
एक क्षण के लिए भी वियोग नहीं सह सकते | वे जान-बूझकर तो अपने प्रेमास्पद
का त्याग कर ही नहीं सकते, यदि प्रेमास्पद उन्हें बरबस अलग कर देता है तो विरह के
कारण उनकी दशा शोचनीय हो जाती है | किसी-किसी प्रेमी की तो प्रेमास्पद के विरह में
मृत्यु तक हो जाती है, अथवा मृत्यु की-सी दशा हो जाती है, जलके अभाव में मछली की
तरह उसके प्राण छटपटाने लगते हैं | वह यदि जीता है तो प्रेमी की इच्छा मानकर—उसके
मिलनकी आशा से ही जीता है; मनसे तो उसका प्रेमास्पद से कभी वियोग होता ही नहीं, मन
उसका निरन्तर अपने प्रियतम में ही बसा रहता है | प्राचीन इतिहास के पन्नो को उलटने
पर श्रद्धा और प्रेम का सर्वोच्च नमूना हमें भरतजी के जीवन में मिलता है | ननिहाल
से लौटनेपर भरतजी ने जब सुना कि श्रीराम वनको चले गये और उनके वनगमन का कारण मैं
ही हूँ, तब वे सब कुछ छोड़कर तुरंत श्रीराम के पास वनमें गए और अयोध्या लौट चलने के
लिए उनसे प्रार्थना की | वाल्मीकीय रामायण में तो उन्होंने श्रीरामजी को यहाँतक कह
दिया कि यदि आप अयोध्या न चलेंगे तो मैं अनशन-व्रत लेकर प्राणत्याग कर दूँगा |
परन्तु फिर श्रीराम की आज्ञा मानकर, उनकी चरणपादुकाओं को मस्तक पर रखकर अयोध्या
लौट आये | किन्तु अयोध्या लौटकर भी वे भोगों में लिप्त न हुए, अयोध्या से बाहर
नन्दिग्राम में रहकर उन्होंने मुनियोंका-सा जीवन व्यतीत किया और बड़ी उत्कंठा से
श्रीराम के लौटने की प्रतीक्षा करते रहे |
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि यदि भरतजी का
श्रीराम के चरणों में अतिशय प्रेम था तो उनसे श्रीराम का वियोग कैसे सहा गया,
श्रीराम के विरह में उन्होंने प्राण क्यों नहीं त्याग दिये, तो इसका उत्तर यह है
कि भरतजी श्रीराम के निरे प्रेमी ही न थे, वे उच्च कोटि के श्रद्धालु भी थे | प्रसन्नता में प्रसन्न रहना, प्राणों की बाजी
लगाकर भी उनकी आज्ञा का पालन करना उनके जीवन का व्रत था | उनकी इस श्रद्धा ने ही
उनके प्राणों की रक्षा की और उन्हें चौदह वर्षतक जीवित रखा | उन्हें विश्वास था कि
चौदह वर्ष बीतनेपर श्रीराम से अवश्य भेंट होगी और फिर आजीवन मैं उनके साथ रहूँगा,
फिर कभी वे मुझे अलग रहने को नहीं कहेंगे | इसी आशापर वे जीवित रहे | फिर भी
उन्हें श्रीराम के वियोग का दुःख कम न था | एक-एक दिन गिनकर उन्होंने चौदह वर्ष
व्यतीत किये और विरह-व्यथा में सुखकर वे अत्यन्त कृश हो गये | यही नहीं, चौदह वर्ष
बीतने के बाद यदि श्रीराम वनसे लौटनेमें कुछ भी विलम्ब करते तो उनका प्राण बचना
कठिन था | इस प्रकार प्रेम की ऊँची-से-ऊँची अवस्था उनके अन्दर व्यक्त थी | साथ ही
उनमें श्रद्धा भी कम न थी | इसीलिए उन्होंने सोचा कि जब श्रीराम अपनी इच्छा से
वनमें जा रहे हैं तो उनकी इच्छा के विरुद्ध उन्हें लौटाने के लिए मुझे अति आग्रह
क्यों करना चाहिए | इस प्रकार अतिशय प्रेम के साथ-साथ उनमें श्रद्धा भी उच्चतम
कोटि की थी | किन्तु उच्च श्रेणी के प्रेमी अपने प्रेमास्पद की और सब बातें मानते
हुए भी कभी-कभी उनके संग के लिए अड़ जाते हैं | संग के लिए उनका इस प्रकार आग्रह
करना भी दोषयुक्त नहीं माना जाता | इससे उनकी श्रद्धा में कमी नहीं मानी जाती |
सारांश यह है कि प्रेमी किसी भी हेतु से प्रेमास्पद का त्याग नहीं करता |
प्रेमास्पद का संग बना रहे, इसके लिए वह कभी-कभी अपने प्रेमास्पद की रूचि की भी उपेक्षा
कर देता है | इसके विपरीत, श्रद्धालु अपने श्रद्धेय की रूचि रखने के लिए उनके संग
का भी प्रसन्नतापूर्वक त्याग कर देता है; परन्तु उनकी
रूचि के प्रतिकूल कोई चेष्टा नहीं करता | प्रेमी को प्रेमास्पद का संग छोड़ने में
मृत्यु के समान कष्ट होता है और श्रद्धालु को श्रद्धेय की रूचि के प्रतिकूल आचरण
मरण के समान प्रतीत होता है | प्रेमास्पद
प्रेम बढ़ाने के लिए यदि प्रेमी को कभी अलग कर देता है तो प्रेमी को उसका वियोग
असह्य हो जाता है | इसी प्रकार श्रद्धालु से श्रद्धेय की
रूचि का पालन करने में तनिक भी कोर-कसर सहन नहीं होती | सच्चे प्रेम और श्रद्धा का
यही स्वरुप है |.........शेष अगले ब्लॉग
में
—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!