※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

गीताप्रेस के संस्थापक-दिनचर्या-१०-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैशाख कृष्ण, दशमी, गुरूवार, वि० स० २०७१

गीताप्रेस के संस्थापक-दिनचर्या-१०-

 
गत ब्लॉग से आगे….....आपकी दैनिक दिनचर्या बहुत व्यस्त और अनुकरणीय रही है । प्रात:काल ४ बजे से रात्रि ११-१२ बजे तक अखण्ड भाव से कर्मरत रहते थे । कही प्रमाद नहीं, आलस्य नहीं, तन्द्रा नही, विश्राम नहीं, आराम नहीं, शिथिलता नहीं, उदासीनता नहीं । ऐसा लगता यह व्यक्ति चिर जागरूक है, सतत सावधान है । जब से होश संभाला और यज्ञोपवीत संस्कार से संपन्न हुए, नियमपूर्वक दोनों काल की संध्योपासन ठीक समय से-प्रात:काल की सूर्यनारायण के उदय पूर्व, संध्याकाल की सुर्यास्तके पूर्व ४८ मिनट के अन्दर । गीता के समान ही संध्योपासनामें उनकी अनन्य निष्ठा थी । यात्रा में हों, सभा में हों, विचार-विमर्श में हो, बीमार हो, चाहे जहाँ भी हो, जैसे भी हो संध्योपासना के समय वे सब कुछ छोड़ कर एकदम सहसा संध्या में लग जाते थे और क्या मजाल की उनकी एक भी संध्या छुटी हो । समय से संध्या न होने पर एक समय के उपवास का नियम था, लेकिन पूरे जीवनकाल में शायद एक या दो बार ही उपवास करना पड़ा हो ।
 
प्रात:कालीन संध्या के पश्चात वे नियमपूर्वक श्रीमदभगवतगीता  और श्री विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करते और योगासन करते । गीता एवं विष्णुसहस्त्रनाम उन्हें खूब अच्छी तरह कंठस्थ थे; परन्तु पाठ की विधि के अनुशाशन को बहुत कडाई के साथ पालन करते थे । आँखों से कम दीखने लगा तो विधिवत गीता और सहस्त्रनाम वे नियमपूर्वक सुनते । गायत्री और हरिनाम के प्रति भी आपकी वैसी ही अनन्य निष्ठा थी ।

कई बातों में आपने अपने लिए नियमों का कवच बना लिया था-भोजन के सम्बन्ध में, वस्त्र के सम्बन्ध में । भोजन में वे कुल तीन चीज लेते थे हल्का और सात्विक । गौ-दुग्ध पर उनका आग्रह था । वस्त्र भी शरीर पर बस एक धोती, एक चौबन्दी, एक चादर । कहीं आना-जाना होता तो सर पर केसरिया रंग की पगड़ी और पैरों में अहिंसक जूते । ..... शेष अगले ब्लॉग में       

  

गीताप्रेस के संस्थापक, गीता के परम प्रचारक, प्रकाशक  श्रीविश्वशान्ति आश्रम, इलाहाबाद

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!