※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 27 अगस्त 2013

* जन्म कर्म च मे दिव्यं *-3-


     || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद कृष्ण, सप्तमी, मंगलवार, वि० स० २०७०


गत ब्लॉग से आगे.......भगवान् के जन्म और विग्रह दिव्य होते हैं, यह बड़े ही रहस्य का विषय है | भगवान् का जन्म साधारण मनुष्यों की भांति नहीं होता | भगवान् श्रीकृष्ण जब कारागार में वसुदेव-देवकी के सामने प्रकट हुए, उस समय का श्रीमद्भागवत का प्रसंग देखने और विचारने से मनुष्य समझ सकता है कि उनका जन्म साधारण मनुष्यों की भांति नहीं हुआ | अव्यक्त सच्चिदानन्दघन परमात्मा अपनी लीला से ही शंख, चक्र, गदा, पद्मसहित विष्णु के रूप में वहाँ प्रकट हुए | उनका प्रकट होना और पुनः अन्तर्धान होना उनकी स्वतन्त्र लीला है, वह हमलोगों के उत्पत्ति-विनाश की तरह नहीं है | भगवान् की तो बात ही निराली है | एक योगी भी अपने योगबल से अन्तर्धान हो जाता है और पुनः उसी स्वरूप में प्रकट होकर दर्शन देता है, परन्तु उसकी अन्तर्धान की अवस्था में उसे कोई मरा हुआ नहीं समझता | जब महर्षि पतंजलि आदि योग के ज्ञाता एक योगी की ऐसी शक्ति बतलाते हैं तब परमात्मा ईश्वर के लिए अपने पहले रूप को छिपाकर दूसरे रूप में प्रकट होने आदि में तो बड़ी बात ही क्या है ? अवश्य ही भगवान् श्रीकृष्ण का अवतरण साधारण लोकदृष्टि में उनके जन्म लेने के सदृश ही हुआ, परन्तु वास्तव में वह जन्म नहीं था, वह तो उनका प्रकट होना था | श्रीमद्भागवत में शुकदेवजी कहते हैं—

कृष्णमेनमवेही त्वमात्मानमखिलात्मनाम् |

जगध्दिताय सोऽप्यत्र देहीवाभाति मायया ||

(१० | १४ | ५५)

‘आप इन श्रीकृष्ण को सम्पूर्ण भूत-प्राणियों के आत्मा जानें | इस लोक में भक्तजनों के उद्धार के लिए वे ही भगवान् अपनी माया से देहधारी-से प्रतीत होते हैं |’

          जब भगवान् दिव्यरूप से प्रकट हुए तब माता देवकी उनकी अनेक प्रकार से स्तुति करती हुई कहती हैं—

उपसंहर विश्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम् |

शंखचक्रगदापद्मश्रिया  जुष्टं चतुर्भुजम् ||

(श्रीमद्भा० १० | ३ | ३०)

‘हे विश्वात्मन् ! आप शंख, चक्र, गदा, पद्म और श्री से सुशोभित चार भुजावाले अपने इस अद्भुत रूप को छिपा लीजिये |’ देवकी के प्रार्थना करने पर भगवान् ने अपने चतुर्भुजरूप को छिपाकर द्विभुज बालक का रूप धारण कर लिया |

इत्युक्त्वाऽऽसीद्धरिस्तूष्णीं भगवानात्ममायया |

पित्रो: सम्पश्यतो: सद्यो बभूव प्राकृत: शिशु: ||

(श्रीमद्भा० १० | ३ | ४६)

         इससे उनका प्रकट होना ही स्पष्ट सिद्ध होता है | गीतामें भी भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी ने अर्जुन के प्रार्थना करने पर पहले उसे अपना विश्वरूप दिखलाया, फिर उसी की प्रार्थना पर चतुर्भुजरूप धारण किया और अन्त में पुनः द्विभुजरूप होकर दर्शन दिये | इससे प्रकट होता है कि भगवान् अपने भक्तों की इच्छा के अनुसार उन्हें दर्शन देकर अन्तर्धान हो जाते हैं | इस प्रकार भगवान् के प्रकट और अन्तर्धान होने को जो लोग मनुष्यों के जन्म और मरण के सदृश समझते हैं वे भगवान् के तत्त्व को नहीं जानते, अपने जन्म की दिव्यता को दिखलाते हुए भगवान् गीता में अर्जुन के प्रति कहते हैं—

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामिश्वरोऽपि सन् |

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ||

(४ | ६)

‘मैं अविनाशीस्वरुप, अजन्मा होनेपर भी तथा सब भूत-प्राणियों का ईश्वर होनेपर भी, अपनी प्रकृति को अधीन करके योगमाया से प्रकट होता हूँ |

         इस श्लोक में ‘अपि’ और ‘सन्’ शब्दों से भगवान् का यह कथन स्पष्ट है कि मेरे प्रकट होने के तत्त्व को नहीं जाननेवाले मूर्खों को मैं अजन्मा होता हुआ भी जन्मता हुआ-सा प्रतीत होता हूँ | जब मैं सगुणरूप से अन्तर्धान होता हूँ तब मेरे इस छिपने के रहस्य को न जाननेवाले मूर्खो की दृष्टि में मैं अविनाशी, विनाशभाव को प्राप्त होता हुआ-सा प्रतीत होता हूँ | जब मैं लीला से साधारण रूप में प्रकट होता हूँ तब उसका यथार्थ मर्म न जाननेवाले मूढ़ो की दृष्टि में मैं सर्वव्यापी सच्चिदानंदघन परमात्मा सारे भूत-प्राणियों का ईश्वर होता हुआ भी साधारण मनुष्य-सा प्रतीत होता हूँ |

          उपर्युक्त वर्णन से यह सिद्ध हो जाता है कि भगवान् का प्रकट होना और अन्तर्धान होना मनुष्यों की उत्पत्ति और विनाश के सदृश नहीं है | उनका जन्म मनुष्यों की उत्पत्ति और विनाश के सदृश नहीं है | उनका जन्म मनुष्यों के जन्म की भांति होता तो एक क्षण के अन्दर एक शरीर से दूसरे शरीर का परिवर्तन करना, जैसे उन्होंने देवकी और अर्जुन के सामने किया था, कभी नहीं बन सकता |.........शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!