※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 26 अगस्त 2013

* जन्म कर्म च मे दिव्यं *--2-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद कृष्ण, षष्ठी, सोमवार, वि० स० २०७०

 

गत ब्लॉग से आगे.......भगवान् ने कहा है—

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन |

ज्ञातुं   द्रष्टुं      तत्त्वेन  प्रवेष्टुं    परंतप ||

(गीता ११ | ५४)

‘हे श्रेष्ठ तपवाले अर्जुन ! अनन्य भक्ति करके तो इस प्रकार मैं प्रत्यक्ष देखने के लिए और तत्त्व से जानने के लिए तथा प्रवेश करने के लिए अर्थात् एकीभाव से प्राप्त होने के लिए भी शक्य हूँ |’

          विचार करनेपर यह प्रतीत होगा कि ऐसा होना युक्तिसंगत ही है | प्रह्लाद को भगवान् ने खम्भे में से प्रकट होकर दर्शन दिया था | इस प्रकार भगवान् के प्रकट होने के अनेक प्रमाण शास्त्रों में विभिन्न स्थलों पर मिलते हैं | सर्वशक्तिमान परमात्मा तो असंभव को भी सम्भव कर सकते हैं, फिर यह तो सर्वथा युक्तिसंगत है | भगवान् जब सर्वत्र विद्यमान हैं तब उनका स्तम्भ में से प्रकट हो जाना कौन आश्चर्य की बात है | यद्यपि यह सम्पूर्णरूप से पर्याप्त नहीं है क्योंकि परमात्मा के सदृश व्यापक वस्तु अन्य कोई है ही नहीं, जिसकी परमात्मा के साथ तुलना की जा सके |

        अग्नितत्व कारणरूप से अर्थात् परमाणुरूप से निराकार है और लोक में समभाव से सभी जगह अप्रकटरूपेण व्याप्त है | लकड़ियों के मथने से, चकमक-पत्थर से और दियासलाई की रगड़ से अथवा अन्य साधनों द्वारा चेष्टा करनेपर वह एक जगह अथवा एक ही समय कई जगह प्रकट होती है; और जिस स्थान में अग्नि प्रकट होती है उस स्थान में अपनी पूर्ण शक्ति से ही प्रकट होती है | अग्नि की छोटी-सी शिखा को देखकर कोई यह कहे कि यहाँ अग्नि पूर्णरूप से प्रकट नहीं है, तो यह उसकी भूल है | जहाँ पर भी अग्नि प्रकट होती है वह अपनी दाहक तथा प्रकाशक शक्ति को पूर्णतया साथ रखती हुई ही प्रकट होती है और आवश्यक होनेपर वह जोर से प्रज्वलित होकर सारे ब्रह्माण्ड को भस्म करने में समर्थ हो सकती है | इस तरह पूर्णशक्तिसंपन्न होकर एक जगह या एक ही समय अनेक जगह एक देशीय साकाररूप में प्रकट होने के साथ ही वह अग्नि अव्यक्त—निराकाररूप में सर्वत्र व्याप्त भी रहती है | इसी प्रकार निराकार सर्वव्यापी विज्ञानानंदघन अक्रियरूप परमात्मा अप्रकटरूप से सब जगह व्याप्त होते हुए भी सम्पूर्ण गुणों से सम्पन्न अपने पूर्णप्रभाव के सहित एक जगह अथवा एक ही काल में अनेक जगह प्रकट हो सकते हैं; इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है ? इस प्रकार भगवान् का प्रकट होना तो सर्व प्रकार से युक्तिसंगत ही है |

          कोई-कोई पुरुष यह शंका करते हैं कि भगवान् सर्वशक्तिमान हैं, वे अपने संकल्पमात्र से ही रावण और कंस आदि को दण्ड दे सकते थे, फिर उन्हें श्रीराम और श्रीकृष्ण के रूपमें अवतार लेने की क्या आवश्यकता थी ? यह शंका भी सर्वथा अयुक्त है | ईश्वर के कर्तव्य के विषय में इस प्रकार की शंका करने का मनुष्य को कोई अधिकार नहीं है तथापि जिनका चित्त अज्ञान से मोहित है उनके मनमें ऐसी शंका हो जाया करती है | भगवान के अवतरण में बहुत-से कारण हो सकते हैं, जिनको वस्तुतः वे ही जानते हैं | फिर भी अपनी साधारण बुद्धि के अनुसार कई कारणों में से एक यह भी कारण समझ में आता है कि वे संसार के जीवों पर दया करके सगुणरूप में प्रकट होकर एक ऐसा ऊँचा आदर्श रख जाते हैं—संसार को ऐसा सुलभ और सुखकर मुक्ति-मार्ग बतला जाते हैं जिससे वर्तमान एवं भावी संसार के असंख्य जीव परमेश्वर के उपदेश और आचरण को लक्ष्य में रखकर उनका अनुकरण कर कृतार्थ होते रहते हैं |.......शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!