※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 25 अगस्त 2013

* जन्म कर्म च मे दिव्यं *-1-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद कृष्ण, पन्चमी, रविवार, वि० स० २०७०


भगवान् के जन्म-कर्म की दिव्यता एक अलौकिक और रहस्यमय विषय है, इसके तत्त्व को वास्तव में तो भगवान् ही जानते हैं, अथवा यत्किंचित्  उनके वे भक्त जानते हैं, जिनको उनकी दिव्य मूर्ति का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ हो; परन्तु वे भी जैसा जानते हैं कदाचित वैसा कह नहीं सकते | जब एक साधारण विषय को भी मनुष्य जिस प्रकार अनुभव करता है उसी प्रकार नहीं कह सकता, तब ऐसे अलौकिक विषय को कोई कैसे कह सकता है ? इस विषय में विस्तारपूर्वक सूक्ष्म विवेचनरूप से शास्त्रों में प्रायः स्पष्ट उल्लेख भी नहीं मिलता, जिसके आधारपर मनुष्य उस विषय में कुछ विशेष समझा सके | इस स्थिति में यद्यपि इस विषय पर लिखने में मैं अपने को असमर्थ मानता हूँ, तथापि अपने मनोरंजनार्थ अपने मन के कुछ भावों को यत्किंचित् प्रकट करता हूँ |

         भगवान का जन्म दिव्य है, अलौकिक है, अद्भुत है | इसकी दिव्यता को जाननेवाला करोड़ो मनुष्यों में शायद ही कोई एक होगा | जो इसकी दिव्यता को जान जाता है वह मुक्त हो जाता है | स्वयं भगवान् ने गीता में कहा है—

जन्म कर्म च मे  दिव्यमेवं  यो वेत्ति तत्त्वतः |

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||

(गीता ४ | ९)

‘हे अर्जुन !  मेरा जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् अलौकिक है, इस प्रकार जो पुरुष तत्त्व से जानता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता, किन्तु मुझको ही प्राप्त होता है |’

        इस रहस्य को नहीं जाननेवाले लोग कहा करते हैं कि निराकार सच्चिदानंदघन परमात्मा का साकाररूप में प्रकट होना न तो सम्भव है और न युक्तिसंगत ही है | वे यह भी शंका करते हैं कि सर्वव्यापक, सर्वत्र समभाव से स्थित, सर्वशक्तिमान भगवान् पूर्णरूप से एक देश में कैसे प्रकट हो सकते हैं ? और भी अनेक प्रकार की शंकाएँ की जाती हैं | वास्तव में ऐसी शंकाओं का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है | जब मनुष्य-जीवन में इस लोक की किसी अद्भुत बात के सम्बन्ध में भी बिना प्रत्यक्ष-ज्ञान हुए उसपर पूरा विश्वास न होना आश्चर्य अथवा असंभव नहीं कहा जा सकता | भौतिक विषय को तो उसके क्रियासाध्य होनेके कारण विज्ञान के जाननेवाले किसी भी समय प्रकट करके उसपर विश्वास करा भी सकते हैं, किन्तु परमात्मासम्बन्धी विषय बड़ा ही विलक्षण है | प्रेम और श्रद्धा से स्वयमेव निरंतर उपासना करके ही मनुष्य इस तत्त्व को प्रत्यक्ष कर सकता है |  कोई भी दूसरा मनुष्य अपनी मानवी शक्ति से इसे प्रकट करके नहीं दिखला सकता |.........शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!