※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 24 अगस्त 2013

संत-महिमा-२७-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद कृष्ण, चतुर्थी, शनिवार, वि० स० २०७०

संत के आचरण और उपदेश

 

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प्रश्न: जब ऐसे महापुरुष विधि-निषेध शास्त्र का कोई शासन नहीं, तब वे कर्मो का आचरण क्यों करते है ?

उत्तर : लोगों पर दया करके लोकहित के लिए | स्वयं भगवान वासुदेव भी तो अवतार लेकर लोकहितार्थ कर्माचरण करते है | संतों को करने के लिए भी कहा है ‘श्रेष्ठ-श्रेष्ठ जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते है, वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है | हे अर्जुन ! मुझे तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्मों में ही बरतता हूँ |’ (गीता ३| २१-२२)

भगवान के इस आदर्श के अनुसार यदि संत पुरुष आचरण करे तो इसमें उनका गौरव है और लोगों का परम कल्याण है और इसलिए संतों के द्वारा स्वाभाविक ही लोकहितकर कर्म होते है | ऐसे संतों का जीवन लोगों के उपकार के निमित ही होता है | अतएव लोगों को भी इस प्रकार के संत बनने के लिए भगवान की शरण होकर पद-पद पर भगवान् की दया का दर्शन करते हुए हर समय प्रसन्नचित रहना चाहिये | भगवान को यंत्री मान कर अपने को उनके समर्पण करके उनके हाथ का यंत्र बनकर उनके आज्ञानुसार चलना चाहिये और यह याद रखना चाहिये की जो इस प्रकार अपने-आप को भगवान के अर्पण कर देता है, उसके सारे आचरण भगवत्कृपा से भगवान् के अनुकूल ही होते है-यही शरणागति की कसौटी है |

इस शरणागति से ही भगवान की अनन्त दया के दर्शन होते है और भगवान की दया से ही देवताओं के भी पूजनीय परमदुर्लभ संतभाव की प्राप्ति होती है |  

  श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!