।।
श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
पौष कृष्ण, चतुर्दशी,मंगलवार, वि० स० २०७०
तीर्थो में पालन
करने योग्य कुछ उपयोगी बाते -२-
(५) कंच्चन-कामिनी के लोलुप, अपने नाम
रूपको पुजवाकर लोगो को उच्चिस्ठ (जूठन) खिलने वाले, मान-बड़ाई और प्रतिष्ठा के
गुलाम, प्रमादी और विषयासक्त पुरुषों का भूल कर भी संग नहीं करना चाहिये, चाहे वे
साधु, ब्रह्मचारी और तपस्वी के भेष में भी क्यों न हो । माँसाहारी, मादक पदार्थों
का सेवन करने वाले, पापी, दुराचारी और नास्तिक पुरुषों का तो दर्शन भी नहीं करना
चाहियें ।
तीर्थ में किसी-किसी स्थान पर तो
पण्डे-पुजारी और महन्त आदि यात्रियों को अनेक प्रकार से तंग किया करते है । जैसे
यात्रा सफल करवाने के नाम पर दुराग्रहपूर्वक अधिक धन लेने के लिए अड़ जाना, देव
मंदिर में बिना पैसे लिए दर्शन न करवाना, बिना भेट लिए स्नान न करने देना,
यात्रियों को धमकाकर और पाप का भय दिखाकर जबरदस्ती रुपयें ऐठना, मंदिरों और
तीर्थों पर भोग-भण्डारे और अटके आदि के नाम पर भेट लेने के लिए अनुचित दबाब डालना,
अपने स्थान पर ठहराकर अधिक धन प्राप्त करने का दुराग्रह करना, सफ़ेद चील (गिद्ध)
पक्षियों को ऋषियों और देवताओं का रूप देकर और उनकी जूठन खिलाकर भोलेभाले यात्रिओ से धन ठगना और
देवमूर्तियों द्वारा शर्बत पिये जाने आदि झूठी करामात को प्रसिद्द करके लोगो को
ठगना इत्यादि । यात्रियों को इन सबसे सावधान रहना चाहिये ।
(६) साधु, ब्राह्मण, तपस्वी,
ब्र्ह्चारी, विद्यार्थी आदि सत्पात्रों की तथा दुखी, अनाथ, आतुर, अंगहीन, बीमार और
साधक पुरुषों की अन्न, वस्त्र, औसध और धार्मिक पुस्तके आदि के द्वारा यथायोग्य
सेवा करनी चाहिये ।
(७) भोग और ऐश्वर्य को अनित्य समझते
हुए विवेक-वैराग्यपूर्वक वश में किये हुए मन और इन्द्रियों को शरीर-निर्वाह के
अतिरिक्त अपने-अपने विषयों से हटाने की चेष्टा करनी चाहिये ।
(८) अपने अपने अधिकार के अनुसार
संध्या, तर्पण, जप, ध्यान, पूजा-पाठ, स्वाध्याय, हवंन,बलिवैश्व, सेवा आदि नित्य और
नैमितिक कर्म ठीक समय पर करने की चेष्टा करनी चाहिये । यदि किसी विशेष कारणवश समय
का उल्लंघन हो जाय तो भी कर्म का उल्लंघन नहीं करना चाहिये ।
गीता रामायण आदि शास्त्रों का
अध्यन्न, भगवान्नाम जप, सूर्य भगवान को अर्घ्यदान, ईस्टदेव की पूजा, ध्यान,
स्तुति, नमस्कार और प्रार्थना आदि तो सभी वर्ण और आश्रम के स्त्री-पुरुषों को
अवश्य ही करने चाहिये ।
(९) काम, क्रोध, लोभ आदि के वश में
होकर किसी भी जीव को किसी प्रकार किन्चितमात्र भी दुःख नहीं पहुचाना चाहिये ।....शेष
अगले ब्लॉग में..
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!