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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
पौष कृष्ण, अमावस्या, बुधवार, वि० स० २०७०
तीर्थो में पालन
करने योग्य कुछ उपयोगी बाते -3-
कीर्तन और स्वाध्याय के अतिरिक्त समय में मौन रहने की चेष्टा करनी चाहिये; क्योकि मौन रहने से जप और ध्यान के
साधन में विशेष मदद मिलती है । यदि विशेष कार्यवश बोलना पड़े तो सत्य, प्रिय और
हितकारक वचन बोलने चाहिये । भगवान श्री कृष्ण ने गीता में वाणी के तप का लक्षण
करते हुए कहा है “जो उद्वेग न करने वाला, प्रिय और हितकारक एवं यतार्थ भाषण है तथा
जो वेद-शास्त्रों के पठन एवं परमेश्वर के नाम जप का अभ्यास है वाही वाणी सम्बन्दी
तप कहा जाता है ।” निवास-स्थान और बर्तनों के अतिरिक्त किसी की कोई भी चीज काम में नहीं लानी चाहिये । बिना मांगे देने पर भी बिना मूल्य स्वीकार नहीं करनी करनी चाहिये । तीर्थों में सगे-सम्बन्धी, मित्र आदि की भेट-सौगात भी नहीं लेनी चाहिये । बिना अनुमति के तो किसी की कोई भी वस्तु काम में लेना चोरी के समान है । बिना मूल्य औषध लेना भी दान लेने के समान है ।
मन, वाणी और शरीर से ब्रह्मचर्य के पालन पर विसेस ध्यान रखना चाहिये । स्त्री को परपुरुष का और पुरुष को परस्त्री का तो दर्शन, स्पर्श, भाषण और चिन्तन आदि भी कभी नहीं करना चाहिये । यदि विशेष आवस्यकता हो जाय तो स्त्रियों को परपुरुषों को पिता या भाई के सामान समझती हुई, और पुरुष परस्त्रियों को माता या बहन के समान समझते हुए नीची दृष्टी करके संक्षेप में वार्तालाप कर सकते है । यदि एक-दुसरे की किसी के ऊपर संक्षेप में वार्तालाप कर सकते है । यदि एक-दुसरे की किसी के ऊपर पाप बुद्धि हो जाय तो कम-से-कम एक दिन का उपवास करे ।
ऐश, आराम, स्वाद, शौक और भोगबुद्धि से तीर्थों में न तो किसी पदार्थ का संग्रह करना चाहिये और न सेवन ही करना चाहिये । केवल शरीरनिर्वाह मात्र के लिए त्याग और वैराग्यबुद्धि से अन्न-वस्त्र का उपयोग करना चाहिये ।
तीर्थों में अपनी कमाई के द्रव्य से पवित्रतापूर्वक बनाये हुए अन्न और दूध-फल आदि सात्विक पदार्थों का ही भोजन करना चाहिये । सबके साथ स्वार्थ और अहंकार को त्याग कर दया, विनय और प्रेमपूर्वक सात्विक व्यव्हार करना चाहिये ।....शेष अगले ब्लॉग
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!