※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

तीर्थो में पालन करने योग्य कुछ उपयोगी बाते -४-


।। श्रीहरिः ।।

आज की शुभतिथि-पंचांग

पौष शुक्ल, प्रतिपदा, गुरूवार, वि० स० २०७०
 

 तीर्थो में पालन करने योग्य कुछ उपयोगी बाते  -४-

 
तीर्थों में बीड़ी, सिगरेट, तमाखू, गाँजा, भाँग, चरस, कोकीन, आदि मादक वस्तुओं का, लहसुन, प्याज, बिस्कुट, बर्फ, सोडा, लेमोनेड आदि अपवित्र पदार्थों का, ताश, चौपड़, शतरंज कहलना और नाटक-सिनेमा देखना आदि प्रमादका तथा गाली गलोज, चुगली-निन्दा, हँसी-मजाक, फ़ालतू बकवाद, आक्षेप आदि व्यर्थ  वार्तालाप का कतई त्याग करना चाहिये ।

गंगा, यमुना और देवालय आदि तीर्थस्थानों से बहुत दूरी पर  मल-मूत्र का त्याग करना चाहिये । जो मनुष्य गंगा-यमुना आदि  के तटपर मल-मूत्र का त्याग करता है तथा गंगा-यमुना आदि में दतुअन और कुल्ले करता है, वह स्नान-पान के पुण्य को न पाकर पाप का भागी होता है ।

काम-क्रोध, लोभ-मोह, मद-मात्सर्य, राग-द्वेष, दम्भ-कपट, प्रमाद-आलस्य आदि दुर्गुणों का तीर्थों में सर्वथा त्याग करना चाहिये ।
 
सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख और अनुकूल-प्रतिकूल पदार्थों के प्राप्त होने पर उनको भगवान् का भेजा हुआ पुरस्कार मानकर सदा-सर्वदा प्रसन्नचित और संतुस्ट रहना चाहिये ।

तीर्थयात्रा में अपने संगवालों में से किसी साथी तथा आश्रित को भारी विपति आने पर काम, क्रोध या भय के कारण उसे अकेले कभी नहीं छोड़ना चाहिये । महारज युद्धिस्टरने तो स्वर्ग का तिरस्कार करके परम धर्म समझकर अपने साथी कुत्ते का भी त्याग नहीं किया । जो लोग अपने किसी साथी या आश्रित के बीमार पड जानेपर उसे छोड़कर तीर्थ-स्नान और भगवदविग्रह के दर्शन आदि के लिए चले जाते है उनपर भगवान प्रसन न होकर उलटे नाराज हो जाते है; क्योकि ‘परमात्मा ही सबकी आत्मा है’ इस न्यास से उस आपदग्रस्त साथी का तिरस्कार परमात्मा का ही तिरस्कार है । इसलिए विपतिग्रस्त साथी का त्याग तो भूल कर भी नहीं करना चाहिए ।....शेष अगले ब्लॉग

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!