※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

गीताके अनुसार मनुष्य अपना कल्याण करने में स्वतंत्र है

 || श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
मार्गशीर्ष शुक्ल नवमीं, बुधवार, वि०स० २०७०
** गीताके अनुसार मनुष्य अपना कल्याण करने में स्वतंत्र है **
गत ब्लॉग से आगे.....संसार में जितने भी हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी,यहूदी, सिख आदि मत और सिद्धांत माने जाते हैं, उन सबसे आदरपूर्वक निरपेक्ष होकर पक्षपातरहित हो समभाव से विवेकपूर्वक गम्भीरता से अपनी बुद्धि के द्वारा निर्णय करते हुए विचार करना चाहिये कि परम कल्याणदायक भाव और आचरण कौन-से हैं और उनके विपरीत पतनकारक भाव और आचरण कौन-से हैं | एवं इसके लिए जो-जो बातें अपने मनमें आयें, उनपर सोच-विचार करके निर्णय की हुई बातों की हमें दो श्रेणियाँ बना लेनी चाहियें—(१) कल्याणकारक अच्छी बातें और (२) पतनकारक बुरी बातें | जो कल्याण-कारक बातें हों, उनको दाहिनी ओर रखें और जो पतनकारक बातें हो, उनको दाहिनी ओर रखें और जो पतनकारक बातें हों, उनको दाहिनी ओर रखें और जो पतनकारक बातें हों, उनकों बायीं ओर रखें | इस प्रकार अलग-अलग दो पंक्तियाँ बन जायँगी, जिनमें से दाहिनी ओर की पंक्ति ग्रहण करने के लिए एवं बायीं ओर की पंक्ति त्याग करने के लिए होगी | उदाहरण के लिए—
१-एक ओर सदव्यवहार है और दूसरी ओर दुर्व्यवहार है | अब यह निर्णय करना है कि इन दोनों में कौन उत्तम और कल्याणकारक है तथा कौन निकृष्ट और पतनकारक है |
          एक मनुष्य आपके साथ अपना स्वार्थ और अभिमान छोड़कर बहुत उत्तम श्रेणी का व्यवहार करता है तो इससे आपको कितनी प्रसन्नता और शांति मिलती है | आपके हृदय पर यह असर पड़ता है कि इसने मेरे साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया | अतः इससे आपको यह शिक्षा लेनी चाहिए कि आप भी दूसरों के साथ ऐसा ही उत्तम व्यवहार करें | इसके विपरीत, कोई व्यक्ति आपके प्रति अत्याचार करता है, दुर्व्यवहार करता है, आपका अपमान करता है तो उससे आपके चित्त में क्रोध, भय, अशांति और क्षोभ हो जाते हैं | आपके चित्त में उसके व्यवहार का यह असर पड़ता है कि इसने मेरे साथ बहुत अनुचित और बुरा बर्ताव किया | अतः उससे आपको यह शिक्षा लेनी चाहिए कि आप ऐसा दुर्व्यवहार किसी के साथ न करें |
          इससे यह निर्णय हो जाता है कि सदव्यवहार ही उत्तम और कल्याणकारक है तथा दुर्व्यवहार निकृष्ट और पतनकारक है | अतः सदव्यवहार को दाहिनी पक्तिं में और दुर्व्यवहार को बायीं पंक्ति में रखें |

२-एक ओर समता है और दूसरी ओर विषमता | इन दोनों में कौन उत्तम और कौन निकृष्ट है—इसका निर्णय करें | विचार करनेपर यही निर्णय होता है कि समता ही अमृत है और विषमता (राग-द्वेष) ही विष है, जो सब अनर्थों की जड़ है | अतः समता को दाहिनी ओर की पंक्ति में और विषमता को बायीं ओर की पंक्ति में रखें |

३-एक ओर दूसरों का हित करना है और दूसरी ओर दूसरों का अहित करना | इन दोनों में से कौन उत्तम है, इसपर विचार करनेपर यही निर्णय प्राप्त होता है कि किसी को दुःख न पहुँचाकर अहंकार, ममता, स्वार्थ और आसक्ति से रहित हो तन, मन, धन आदि द्वारा हर प्रकार से उसको सुख पहुँचाना ही अपने लिए कल्याणकारक और उत्तम है | इसके विपरीत काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय आदि के वश में होकर किसी भी प्रकार कहीं कभी किसी निमित्त से किसी प्राणी की आत्मा को किंचिन्मात्र भी दुःख पहुँचाना अपने लिए पतनकारक है | जब यह निर्णय हो गया कि दूसरों का अहित करना हमारे लिए पतनकारक है, तब हमें दूसरों के हित को दाहिनी ओर की पंक्ति में और दूसरों के अहित को बायीं ओर की पंक्ति में रखना चाहिए |

४- एक ओर सत्य-भाषण है और एक ओर असत्य-भाषण | इन दोनों में कौन उत्तम और कल्याणकारक है | इस विषय में अपने आत्मा से पूछनेपर यही उत्तर मिलता है कि जो बात जैसी देखी, सुनी, समझी  हो, उसको न घटाकर, न बढ़ाकर कपट छोड़कर ज्यों-का-त्यों सत्य कह देना ही उत्तम है | इसके विपरीत, काम-क्रोध, लोभ-मोह और भय के वश में होकर मिथ्याभाषण करना पाप है | जब यह निर्णय हो गया, तब सत्यभाषण को दाहिनी ओर की पंक्ति में और असत्य-भाषण को बायीं ओर की पंक्ति में रखें |

५-एक ओर ब्रह्मचर्य का पालन है और एक ओर व्यभिचार | इन दोनों के विषय में विचार करनेपर यही निर्णय मिलता है कि ब्रह्मचर्य का पालन करना अर्थात् किसी भी स्त्री या बालक के साथ कुत्सितभाव से श्रवण, दर्शन, स्पर्श, वार्तालाप, एकान्तवास, चिन्तन, सहवास, हँसी-मजाक आदि क्रियाओं को न करना तथा कामोद्दीपक वस्तुओं का सेवन न करना ही श्रेष्ठ और कल्याणकारक है | किन्तु काम, क्रोध, लोभ, मोह के वशीभूत होकर इसके विपरीत आचरण करना—व्यभिचार करना महान पतनकारक है | अतः ब्रह्मचर्यपालन को दाहिनी पंक्ति में तथा व्यभिचार को बायीं पंक्ति में रखें |......शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, ‘साधन-कल्पतरु’ पुस्तक से,कोड ८१४ गीताप्रेस गोरखपुर
 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!