※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 22 जून 2013

महात्मा किसे कहते है ? -३-

                                 || श्रीहरिः ||
                  आज की शुभतिथि-पंचांग
   ज्येष्ठ शुक्ल, चतुर्दशी, शनिवार, वि० स० २०७०

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                          महात्माओं के लक्षण
सर्वत्र सम दृष्टि होने के कारण राग-द्वेषका अत्यन्त अभाव हो जाता है, इसलिए उनको प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में हर्ष-शोक नहीं होता | सम्पूर्ण भूतों में आत्म-बुद्धि होने के कारण अपने आत्मा के सद्र्श ही उनका प्रेम हो जाता है, इससे अपने और दुसरे के सुख-दुःख में उनकी समबुद्धि हो जाती है और इसलिए वे सम्पूर्ण भूतो के हित में स्वाभाविक ही रत होते है | उनका अंत:करण अति पवित्र हो जाने के कारण उनके ह्रदय में भय, शोक, उद्वेग, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दोषों का अत्यन्त अभाव हो जाता है | देह में अहंकार का अभाव हो जाने से मान, बड़ाई और प्रतिष्ठा की इच्छा तो उनमे गन्ध मात्र भी नहीं रहती | शांति, सरलता, समता, सुह्रिद्ता, शीतलता, सन्तोष, उदारता और दया के तो वे अनन्त समुद्र होते है | इसलिए उनका मन सर्वदा पप्रफुल्ल्ति, प्रेम और आनन्द में मग्न और सर्वथा शान्त रहता है |     

                      महात्माओं के आचरण
देखने में उनके बहुत से आचरण दैवी सम्पदावाले सात्विक पुरुषों-से होते है, परन्तु सूक्ष्म विचार करनेपर दैवी सम्पदावाले सात्विक पुरुषोंकी अपेक्षा उनकी अवस्था और उनके आचरण कहीं महत्वपूर्ण होते है | सत्य स्वरुप में स्थित होने के कारण उनका प्रत्येक आचरण सदाचार समझा जाता है | उनके आचरण में असत्य के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता | उनका व्यक्तिगत किन्चित भी स्वार्थ न रहने के कारण उनके आचरण में किसी भी दोष का प्रवेश नहीं हो सकता, इसलिए उनके सम्पूर्ण आचरण दिव्य समझे जाते है |



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—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक, कोड ६८३ से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!!