|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
आषाढ़ कृष्ण, कालाष्टमी, रविवार, वि० स० २०७०
प्रश्न – सभी भगवत्प्राप्त पुरुषों की प्रापणीय वस्तु, गीतावक्ता तथा गीताग्रन्थ के एक होने पर भी भगवत्प्राप्त आचार्यों को गीता के अर्थ की प्रतीति भिन्न-भिन्न होने में क्या कारण है?
उत्तर – सबकी प्रापणीय वस्तु एक होने पर भी सबके पूर्व के संस्कार, संग, साधन,स्वभाव और बुद्िध भिन्न-भिन्न होने के कारण उनके कहने-समझाने की शैली और पद्धति भिन्न-भिन्न हुआ करती है | तथा भगवान को जिस समय जिस पुरुष के द्वारा जैसे भावों का प्रचार करना होता है, वही भाव उस आचार्य के हृदय में उस समय प्रकट हो जाते हैं और उन्हें गीता का अर्थ और भाव वैसे ही प्रतीत होने लग जाता है |
प्रश्न – जब सबका कहना भिन्न-भिन्न है तो सभी का कथन यथार्थ कैसे हो सकता है ?
उत्तर – एक दृष्टि से सभी का कथन यथार्थ है और दूसरी दृष्टि से किसी का कहना भी यथार्थ नहीं | भगवत्प्राप्ति रूप अंतिम परिणाम सबका एक होने पर भी सबका कथन अलग-अलग हो सकता है | जैसे द्वितीया के चन्द्रमा का दर्शन करने वाले कई व्यक्तिओं में से कोई एक तो ऐसे बतलाते हैं कि चंद्रमा उस वृक्ष की टहनी से ठीक एक बित्ता ऊपर है | दूसरा व्यक्ति कहता है कि चंद्रमा इस मकान के कोने से सटा हुआ है | तीसरा आदमी खड़िया मिट्टी से लकीर खींचकर बतलाता है कि ऐसी ही आकृति का चंद्रमा है और उस उड़ते हुए पक्षी के दोनों पंजो के ठीक बीच में दीख रहा है | और चौथा व्यक्ति सिरकी के आकार का बतलाता हुआ इस प्रकार संकेत करता है कि चन्द्रमा मेरी अँगुली के ठीक सामने दीख रहा है | जैसे इन सभी व्यक्तिओं का लक्ष्य चन्द्रमा का दर्शन कराने का है और वे अपनी शुभ नियत से अपनी-अपनी प्रतिक्रिया बतलाते हैं; पर एक-दूसरे के कथन में परस्पर आकश-पाताल का अंतर है | इसी प्रकार सभी आचार्यों का उद्देश्य एक ही है,सभी साधकों को भगवत्प्राप्ति कराने के उदेश्य से कहते है; परन्तु उनके कथन में परस्पर अत्यंत भेद हैं | हाँ, अंतिम परिणाम सबका एक होने से सभी का कहना ठीक है अर्थात् किसी भी आचार्य के कथनानुसार चलने से वास्तविक परमात्माप्राप्ति हो जाती है, इस न्याय से सभी का कहना यथार्थ है | किन्तु शब्दों का अर्थ लगाकर तर्क करें तो किसी का भी कहना ठीक नहीं ठहरता, क्योकि वास्तव में चंद्रमा न तो वृक्ष से एक बित्ता ऊँचा है, न ही मकान से सटा हुआ है, न पक्षी के पंजो के बीच में है और न अंगुली के ठीक सामने ही है तथा न चंद्रमा की आकृति ही उन लोगों के कहने के अनुसार ही है | शब्दों पर तर्क करने से कोई-भी बात कायम नहीं रह सकती |
प्रश्न – भगवद्वाक्यरूप गीता के मूल पर श्रद्धा रखनेवाला व्यक्ति गीता का यथार्थ अर्थ जानना चाहता है; किन्तु वह अनेको टीकाओं को पढ़ने से संशय-भ्रम में पड़ जाता है, तो उसे यथार्थत: गीता का ज्ञान हो, इसके लिए वह क्या उपाय करे ?
उत्तर – जो भगवद्वाक्यों को इत्थम्भूत मानकर उनके अनुसार अपना जीवन बनाने के उदेश्य से भगवान के ऊपर निर्भर होकर अपनी बुद्धि के अनुसार विशुद्ध नियत से मूल शब्दों के अर्थ का ख्याल रखता हुआ उनमें प्रवेश होकर उनका स्वाध्याय और अनुशीलन करता रहता है तो भगवत्कृपा से उनके संशय-भ्रम आदि सबका नाश होकर गीता का इत्थम्भूत यथार्थ ज्ञान उसे स्वयमेव हो जाता है |
शेष अगले ब्लॉग में.......
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक, कोड ६८३ से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!