|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
आषाढ़ कृष्ण, सप्तमी, शनिवार, वि० स० २०७०
गत ब्लॉग से आगे....अच्छे पुरुष बड़ाई हो हानिकर समझकर विचारदृष्टी से उसको अपने में रखना नहीं चाहते और प्राप्त होनेपर उसका त्याग भी करना चाहते है | तो भी यह सहज में उनका पिण्ड नहीं छोडती | इसका शीघ्र नाश तो तभी होता है जब की यह ह्रदयसे बुरी लगने लगे और इसके प्राप्त होने पर यथार्थ में दुःख और घ्रणा हो | साधक के लिए साधन में विघ्न डालनेवाली यह मायाकी मोहिनी मूर्ती है, जैसे चुम्बक लोहे को, स्त्री कामी पुरुष को, धन लोभी पुरुष को आकर्षण करता है, यह उससे भी बढ्कर साधक को संसार समुद्र की और खीच कर उसे इसमें बरबस डुबो देती है | अतएव साधक को सबसे अधिक बड़ाई से ही डरना चाहिये | जो मनुष्य बड़ाई को जीत लेता है वह सभी विघ्नों को जीत सकता है |
योगी पुरुष के ध्यान में तो चित की चंचलता और आलस्य ये दो ही महाशत्रु के तुल्य विघ्न करते है | चित में वैराग्य होने पर विषयों में और शरीर में आसक्ति का नाश हो जाता है, इससे उपर्युक्त दोष तो कोई विघ्नं उपस्थित नहीं कर सकते परन्तु बड़ाई एक ऐसा महान दोष है जो इन दोषों के नाश होने पर भी अन्दर छिपा रहता है | अच्छे पुरुष भी जब हम उनके सामने उनकी बड़ाई करते है तो उसे सुनकर विचारदृष्टी से इसको बुरा समझते हुए भी इसकी मोहिनी शक्ति से मोहित हुए-से उस बड़ाई करने वाले के अधीन-से हो जाते है | विचार करने पर मालूम होता है की इस कीर्तिरुपी मोहिनी शक्ति से मोहित न होने वाले वीर करोड़ों में एक ही है |
कीर्तिरुपी मोहिनी शक्ति जिसको नहीं मोह सकती, वही पुरुष धन्य है, वही माया के दासत्व से मुक्त है, वही ईश्वर के समीप है और वही यथार्थ महात्मा है | यह बहुत ही गोपनीय रहस्य की बात है | जिस पर भगवान की पूर्ण दया होती है, या यों कहे की जो भगवान की दया के तत्व को समझ जाता है, वाही इस कीर्तिरूपी दोष पर विजय पा सकता है | इस विघ्न से बचने के लिए प्रत्येक साधक को सदा सावधान रहना चाहिये |
शेष अगले ब्लॉग में.......
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक, कोड ६८३ से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!!