|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
आषाढ़ कृष्ण, नवमी, सोमवार, वि० स० २०७०
गत ब्लॉग से आगे....प्रश्न – जो भगवत्प्राप्त पुरुष नहीं हैं, ऐसे पुरुषों द्वारा भी गीता पर बहुत-सी टीकाऍ देखने में आती है, उन टीकाओं का अनुशीलन करके तदनुसार साधन करने से भी भगवत्प्राप्ति हो सकती है क्या ?
उत्तर – जो गीता को इष्ट मानकर भगवद्वाक्यों को यथार्थ समझता हुआ अपना जीवन गीतामय बनाने के लिए गीता पर निर्भर होकर श्रद्धा और प्रेमपूर्वक अर्थसहित मूल का अथवा केवल टीकाओं का अनुशीलन करता रहता है, उसको गीता स्वयं उन टीकाओं के द्वारा भ्रमित धारणा का निवारण करके यथार्थ बोध करा देती है |
प्रश्न – भगवत्प्राप्त महापुरुष की ही यह टीका है अथवा किसी साधारण पुरुषकी की हुई है, इसका निर्णय कैसे हो?
उत्तर – जिस टीका के अध्ययन से परमात्मा की स्मृति हो, हृदय में परमात्मा और गीता पर श्रद्धा-प्रेम बढे, सद्गुण-सद्भावों की जागृति हो और उस टीका की ओर आकर्षण हो, उसी टीका को भगवत्प्राप्त महापुरुष के द्वारा की हुई माननी चाहिए |
प्रश्न – सभी मत-मतान्तर वाले, सभी सम्प्रदाय के लोग गीता को अपनाते हैं और उनको अपने ही भाव उसमें दीखते हैं तो भगवान् ने भविष्य में होने वाले उन सब भावों को ध्यान में रखकर ही उस समय गीता कही थी क्या ?
उत्तर – भगवान भूत, भविष्य और वर्तमान में होने वाले सर्व भूतों के सभी भावों को तो जानते ही है | भगवान ने गीता में कहा हैं –
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन |
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ||
‘हे अर्जुन ! पूर्व में व्यतीत हुए और वर्तमान में स्थित तथा आगे होने वाले सब भूतों को मैं जानता हूँ, परन्तु मुझकों कोई भी श्रद्धा-भक्ति रहित पुरुष नहीं जानता |’ (गीता ७|२६)
इसलिये भगवान् ने उन सब भावों को ध्यान में रखकर ही गीता कही हो तो भी कोई असंभव बात नहीं है तथा गीता का सिद्धांत ही ऐसा अलौकिक और यथार्थ है कि अच्छी नियत से त्यागपूर्वक प्रचार करनेवाले आचार्यों के हृदय में स्वाभाविक गीता के ही यथार्थ भाव उत्पन्न हुआ करते हैं | इसलिए श्रद्धा और प्रेम से देखने पर उनको अपने-अपने भावों के अनुसार ही गीता प्रतीत होने लगती है |
शेष अगले ब्लॉग में.......
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक, कोड ६८३ से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!