|| श्रीहरिः ||
आषाढ़ कृष्ण, दशमी, मंगलवार, वि० स० २०७०
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प्रश्न – गीता में ऐसी क्या विलक्षण वस्तु है जिससे सनातन धर्म के अतिरिक्त दूसरे मत को माननेवाले भी गीता की और आकृष्ट हो जाते हैं ?
उत्तर – गीता में किसी व्यक्ति की या किसी मत की निन्दा नहीं की गयी | जो बात कही गयी वह युक्तियुक्त और न्यायसंगत कही गयी है | अच्छे-बुरे आदमी का निर्णय भाव और आचरणों से किया गया है, किसी जाति या बाहरी चिन्ह विशेष से नहीं | मनुष्य मात्र का आत्म-कल्याण में अधिकार बतलाया गया है, सर्वप्रिय समता को ही विशेषता दी गयी एवं समता को ही साधक और सिद्ध की कसौटी माना गया है | अथ च गीता के सुनने-समझने से भी शांति की प्राप्ति हो सकती है, फिर उसके अनुसार अनुष्ठान करने वाले की तो बात ही क्या है | गीता का भाषा, भाव, अर्थ, ज्ञान, उसकी पद्यरचना और उसका गायन बहुत ही सुमधुर, सुंदर, सुगम और सुरुचिकर है | इसलिए सभी वर्ग के लोग उसकी और आकृष्ट हो जाते है |
प्रश्न – गीता का पाठ करना उत्तम है या उसे गाना एवम् अर्थ समझना उत्तम है या उसका भाव समझना ?
उत्तर – पाठ करने की अपेक्षा प्रेम पूर्वक मधुर स्वर से गायन करना उत्तम है | गायन के साथ-साथ अर्थ का ज्ञान रहे तो वह और भी उत्तम है | गीता के भावो को हृदय में धारण करना उससे भी उत्तम है एवं उन भावों के अनुसार अपना जीवन बनाना सर्वोत्तम है |
प्रश्न – गीता में प्रथम कर्म, फिर उपासना और तदनंतर ज्ञान के साधन से मुक्ति होती है – इस प्रकार साधन की प्रणाली है अथवा कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग – ये तीनो स्वतंत्र मुक्तिदायक है?
उत्तर – प्रथम कर्म, फिर उपासना और उसके बाद ज्ञान के साधन से मुक्ति होती है – यह क्रम भी है और इसके अतिरिक्त परस्पर स्वतंत्र केवल कर्मयोग, केवल भक्तियोग अथवा केवल ज्ञानयोग से भी मुक्ति बतलाई गयी है | जैसे–
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना |
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे || (गीता १३ | २४)
‘उस परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के द्वारा हृदय में देखते है; अन्य कितने ही ज्ञानयोग के द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोग के द्वारा देखते हैं अर्थात् प्राप्त करते हैं |’
यदि कहें कि ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती- (ॠते ज्ञानान्न मुक्ति:) तो ठीक ही है ; किन्तु निष्काम कर्म से अंत:करण शुद्ध होकर साधक को अपने-आप तत्वज्ञान हो जाता है |
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते |
तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति || (गीता ४ | ३८)
‘इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निसंदेह कुछ भी नही है | उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है |’
इसी प्रकार भेदोपासना से भी भगवत्कृपा द्वारा तत्वज्ञान हो जाता है |
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |
कथयंतश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ||
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् |
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ||
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः |
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता || (गीता १० | ९-११)
‘निरंतर मुझमें मन लगाने वाले और मुझमें ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जनाते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए ही निरंतर संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरंतर रमण करते है | उन निरंतर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और प्रेम-पूर्वक भजने वाले भक्तो को मैं वह तत्वज्ञान रूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं | और हे अर्जुन ! उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए उनके अन्तःकरण में स्तिथ हुआ मैं स्वयं ही अज्ञान से उत्पन्न हुए अन्धकार को प्रकाशमय तत्वज्ञान रूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ |’
इसी प्रकार ज्ञानयोग के साधन से भी तत्वज्ञान हो जाता है तथा ज्ञान होने पर मुक्ति अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है |
शेष अगले ब्लॉग में.......
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक, कोड ६८३ से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!