※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 3 जुलाई 2013

गीताजी की सर्वप्रियता

|| श्रीहरिः ||
                     
आज की शुभतिथि-पंचांग

आषाढ़ कृष्ण, योगिनी एकादशी, 
बुधवार, वि० स० २०७०


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प्रश्न – कर्मयोग के साथ भक्तियोग और ज्ञानयोग, भक्तियोग के साथ कर्मयोग और ज्ञानयोग तथा ज्ञानयोग के साथ कर्मयोग और भक्तियोग एक साथ रह सकते है या नहीं?

उत्तर – कर्मयोग के साथ भक्तियोग और परमात्मा के स्वरुप का ज्ञान रह सकता है; किन्तु अभेदोपासनारूप ज्ञानयोग उसके साथ एक काल में ही नहीं रह सकता; क्योंकि कर्मयोग में भेद-बुद्धि और संसार की सत्ता रहती है तथा ज्ञान योग में इससे विपरीत अभेद बुद्धि और संसार का अभाव रहता है |इसलिए कर्मयोग और ज्ञानयोग परस्पर-विरुद्ध भावयुक्त साधन होने से एक काल में एक साथ नहीं रह सकते |
        
       भक्तियोग (भेदोपासना) के साथ कर्मयोग और परमात्मा के स्वरुप का ज्ञान रह सकता है; किन्तु अभेदोपासना रूप ज्ञानयोग नहीं रह सकता;क्योंकि एक ही पुरुष के द्वारा एक काल में परस्पर-विरुद्ध भाव होने से भेदोपासना और अभेदोपासना एक साथ नहीं की जा सकती |
       
       ज्ञानयोग के साथ शास्त्रविहित कर्म रह सकते; परन्तु कर्मयोग और भक्तियोग नहीं रह सकते | क्योंकि ज्ञानयोग में अद्वैत भाव है तथा कर्मयोग और भक्ति योग में द्वैतभाव है – अत: एक पुरुष में एक काल में दो प्रकार के भावों का अस्तित्व संभव नहीं | अर्थात् अभेद-ज्ञान के साथ भक्तियोग और कर्मयोग एक साथ नहीं रह सकते; परन्तु भक्तियोग और कर्मयोग–दोनों में द्वैत भाव और संसार की सत्ता समान होने के कारण ये दोनों एक साथ रह सकते है |


प्रश्न – भगवत्प्राप्त आचार्यो में से किन-किन आचार्यों का सिद्धांत निर्दोष है ?

उत्तर – भगवत्प्राप्त सभी आचार्यों की जो मान्यता है उसी को उसके अनुयायी सिद्धांत कहते है; किन्तु वास्तव में सिद्धांत तो जो अंतिम प्रापणीय वस्तु है,वही है और वह सबका एक है | उनकी मान्यता को सिद्धांत इसलिए मानते हैं कि उसे सिद्धांत मानने से साधन में तत्परता होती है | इसलिए उनकी मान्यता को सिद्धांत का रूप देना उचित ही है और भगवत्प्राप्त आचार्यों के द्वारा चलाये हुए सभी मार्ग श्रद्धालु के लिए मुक्तिदायक होने से निर्दोष है; किन्तु तर्क की कसौटी पर कसने से कोई भी निर्दोष नहीं ठहर सकता |


प्रश्न- आप द्वैत (भेदोपसना) और अद्वैत (अभेदोपासना) इनमें से किसको उत्तम बतलाते है ?

उत्तर – दोनों को ही उत्तम मानता हूँ और जो जैसा अधिकारी होता है, उसके लिए उसी को उत्तम बतलाता हूँ |

प्रश्न – कौन किसका अधिकारी है – इसका आप किस प्रकार निर्णय करते हैं?

उत्तर – जिसकी श्रद्धा और रूचि में भेदोपासना होती है, वह भेदोपासना का और जिसको अभेदोपासना में होती है, वह अभेदोपासना का अधिकारी है;किन्तु जब तक श्रद्धा और रूचि का निर्णय नहीं होता, तब तक परमात्मा के नाम का जप, उनके स्वरुप का ध्यान, सत्पुरुषों का संग, सत-शास्त्रों का स्वाध्याय- इनको मैं सभी साधकों के लिए उत्तम समझता  हूँ |


प्रश्न – आप साधक के लिए किस नाम का जप और किस रूप का ध्यान बतलाते है ?

उत्तर – वह सदा से ॐ, शिव, राम, कृष्ण, नारायण, हरि आदि में से जिस नाम का जप तथा जिस साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण रूप का ध्यान करता आया है अथवा जिस नाम और जिस रूप में उसकी श्रद्धा-रूचि होती है, उसी को करने के लिए कहा जाता है या पूछने के समय उसके भावों के अनुसार भी बतलाया जाता है |

शेष अगले ब्लॉग में.......

—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक, कोड ६८३ से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!