|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन कृष्ण षष्टी, रविवार, वि०स० २०६९
*शिव-तत्त्व*
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इस अवस्था में उन्होंने सबकों एक ही परम लक्ष्य की ओर मोड़कर सर्वोत्तम मार्गपर लाने के लिए एवं श्रुति, स्मृति आदि का रहस्य स्त्री, शुद्रादि अल्पबुद्धिवाले मनुष्यों को समझाने के लिए उन सबके परम हित के उद्देश्य से पुराणों की रचना की | पुराणों की रचनाशैली देखने से प्रतीत होता है कि महर्षि वेदव्यासजी ने उनमें इस प्रकार के वर्णन, उपदेश और आदेश किये हैं जिनके प्रभाव से परमेश्वर के नाना प्रकार के नाम और रूपों को देखकर भी मनुष्य प्रमाद, लोभ और मोह के वशीभूत हो सन्मार्ग का त्याग करके मार्गान्तर में नहीं जा सकते | वे किसी भी नाम-रूपसे परमेश्वर की उपासना करते हुए ही सन्मार्गपर आरूढ़ रह सकते हैं | बुद्धि और रूचि-वैचित्र्य के कारण संसार में विभिन्न प्रकार के देवताओं की उपासना करनेवाले जनसमुदाय को एक ही सूत्र में बाँधकर उन्हें सन्मार्ग पर लगा देने के उद्देश्य से ही शास्त्र और वेदोक्त देवताओं को ईश्वरत्व देकर भिन्न-भिन्न पुराणों में भिन्न-भिन्न देवताओं से भिन्न-भिन्न भांति से सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और लयका क्रम बतलाया गया है | जीवों पर महर्षि वेदव्यासजी की परम कृपा है | उन्होंने सबके लिए परमधाम पहुँचने का मार्ग सरल कर दिया |
पुराणों में यह सिद्ध कर दिया है कि जो मनुष्य भगवान् के जिस नाम-रूप का उपासक हो वह उसी को सर्वोपरि, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सम्पूर्ण गुणाधार विज्ञानानंदघन परमात्मा माने और उसी को सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार करनेवाले ब्रह्मा, विष्णु, महेश के रूप में प्रकट होकर क्रिया करनेवाला समझे | उपासक के लिए ऐसा ही समझना परम लाभदायक और सर्वोत्तम है कि मेरे उपास्यदेव से बढ़कर और कोई है ही नहीं | सब उसी का लीला-विस्तार या विभूति है | वास्तव में बात भी यही है | एक निर्विकार, नित्य, विज्ञानानंदघन परब्रह्म परमात्मा ही हैं | उन्हीं के किसी अंश में प्रकृति है | उस प्रकृति को ही लोग माया, शक्ति आदि नामों से पुकारते हैं | वह माया बड़ी विचित्र है | उसे कोई अनादि, अनन्त कहते हैं तो कोई अनादि, सांत मानते हैं तो कोई भिन्न बतलाते हैं; कोई सत कहते हैं तो कोई असत प्रतिपादन करते हैं | वस्तुतः माया के सम्बन्ध में जो कुछ भी कहा जाता है, माया उससे विलक्षण है | क्योंकि उसे न असत ही कहा जा सकता है, न सत ही | असत तो इसलिए नहीं कह सकते कि उसी का विकृत रूप यह संसार (चाहे वह किसी भी रूपमें क्यों न हो) प्रत्यक्ष प्रतीत होता है और सत इसलिए नहीं कह सकते कि जड दृश्य सर्वथा परिवर्तनशील होनेसे उसकी नित्य सम स्थिति नहीं देखी जाती एवं ज्ञान होने के बाद उत्तरकाल में उसका या उसके सम्बन्ध का अत्यंत अभाव भी बतलाया गया है और ज्ञानी का भाव ही असली भाव है | इसीलिए उसको अनिर्वचनीय समझना चाहिए |......शेष अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!