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श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन कृष्ण सप्तमी, सोमवार, वि०स० २०६९
*शिव-तत्त्व*
गत ब्लॉग से
आगे.......विज्ञानानंदघन परमात्मा के वेदों
में दो स्वरुप माने गये हैं | प्रकृतिरहित ब्रह्म को निर्गुण ब्रह्म कहा गया है और
जिस अंश में प्रकृति या त्रिगुणमयी माया है उस प्रकृतिसहित ब्रह्म के अंश को सगुण कहते
हैं | सगुण ब्रह्म के भी दो भेद माने गए हैं—एक निराकार, दूसरा साकार | उस
निराकार, सगुण ब्रह्म को ही महेश्वर, परमेश्वर आदि नामों से पुकारा जाता है | वही
सर्वव्यापी, निराकार, सृष्टिकर्त्ता परमेश्वर स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश— इन तीनों
रूपों में प्रकट होकर सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार किया करते हैं | इस
प्रकार पाँच रूपों में विभक्त-से हुए परात्पर, परब्रह्म परमात्मा को ही शिव के
उपासक सदाशिव, विष्णु के उपासक महाविष्णु और शक्ति के उपासक महाशक्ति आदि नामों से
पुकारते हैं | श्रीशिव, विष्णु, ब्रह्मा, शक्ति, राम, कृष्ण आदि सभी के सम्बन्ध
में ऐसे प्रमाण मिलते हैं | शिव के उपासक नित्य विज्ञानानंदघन निर्गुण ब्रह्म को
सदाशिव, सर्वव्यापी, निराकार; सगुण ब्रह्म को महेश्वर; सृष्टि के उत्पन्न करनेवाले
को ब्रह्मा; पालनकर्ता को विष्णु और संहारकर्ता को रूद्र कहते हैं और इन पाँचों को
ही शिव का रूप बतलाते हैं | भगवान् विष्णु के प्रति भगवान् महेश्वर कहते हैं—
त्रिधा भिन्नो ह्यहं विष्णो ब्रह्मविष्णुहराख्यया |
सर्गरक्षालयगुणै र्निष्कलोऽपि सदा
हरे ||
यथा च
ज्योतिष: संङ्गाज्जलादेः स्पर्शता न वै |
तथा ममागुणस्यापि
संयोगाद्बन्धनं न हि
||
यथैकस्या
मृदो भेदो नाम्नि पात्रे न वस्तुतः |
एवं ज्ञात्वा भवद्भ्यां च न
दृश्यं भेदकारणम् |
वस्तुतः
सर्वदृश्यं च शिवरूपं
मतं मम ||
अहं
भवानयं चैव रुद्रोऽयं यो भविष्यति
|
एकं
रूपं न भेदोऽस्ति भेदे च बन्धनम् भवेत् ||
तथापीह मदीयं वै शिवरूपं
सनातनम् |
मूलभूतं
सदा प्रोक्तं सत्यं ज्ञानमनन्तकम् ||
(शिव० ज्ञान० ४ | ४१, ४४, ४८—५१)
‘हे विष्णो ! हे हरे !! मैं स्वभाव से निर्गुण होता हुआ भी संसार की
रचना, स्थिति एवं प्रलय के किये रज, सत्त्व आदि गुणों से क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु
और रूद्र—इन नामों के द्वारा तीन रूपों में विभक्त हो रहा हूँ | जिस प्रकार जलादि
के संसर्ग से अर्थात् उनमें प्रतिबिम्ब पड़ने से सूर्य आदि ज्योतियों में उसका
संपर्क नहीं होता, उसी प्रकार मुझ निर्गुण का भी गुणों के संयोग से बंधन नहीं होता
| मिट्टी के नाना प्रकार के पात्रों में केवल नाम और आकार का ही भेद है, वास्तविक
भेद नहीं है—एक मिट्टी ही है | समुद्र के भी फेन, बुदबुदे, तरंगादि विकार लक्षित
होते हैं; वस्तुतः समुद्र एक ही है | यह समझकर आपलोगों को भेद का कोई कारण न देखना
चाहिए | वस्तुतः सम्पूर्ण दृश्य पदार्थ शिवरूप ही हैं, ऐसा मेरा मत है | मैं, आप, ये ब्रह्माजी और आगे चलकर मेरी जो
रूद्रमूर्ति उत्पन्न होगी ये सब एकरूप ही हैं, इनमें कोई भेद नहीं है | भेद ही
बन्धन का कारण है | फिर भी यहाँ मेरा यह शिवरूप नित्य, सनातन एवं सबका
मूलस्वरूप कहा गया है | यही सत्य, ज्ञान एवं अनन्तरूप गुणातीत परब्रह्म है |’
साक्षात् महेश्वर के इन वचनों से उनका ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’—नित्य विज्ञानानंदघन निर्गुणरूप, सर्वव्यापी, सगुण, निराकाररूप और ब्रह्मा, विष्णु, रूद्ररूप—ये पाँचों सिद्ध होते हैं | यही सदाशिव पञ्चवक्त्र हैं |
इसी प्रकार श्रीविष्णु के उपासक निर्गुण परात्पर ब्रह्म को महाविष्णु, सर्वव्यापी, निराकार, सगुण ब्रह्म को वासुदेव तथा सृष्टि, पालन और संहार करनेवाले रूपों को क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहते हैं | महर्षि पराशर भगवान् विष्णु की स्तुति करते हुए कहते हैं—
अविकाराय शुद्धाय
नित्याय परमात्मने |
सदैकरूपरूपाय विष्णवे सर्वजिष्णवे ||
नमो हिरण्यगर्भाय हरये शंकराय
च |
वासुदेवाय ताराय सर्गस्थित्यंतकारिणे
||
एकानेकस्वरूपाय स्थूलसूक्ष्मात्मने नमः |
अव्यक्तव्यक्तरूपाय विष्णवे मुक्तिहेतवे ||
सर्गस्थितिविनाशानां
जगतोऽस्य जगन्मयः |
मूलभूतो नमस्तस्मै विष्णवे परमात्मने ||
आधारभूतं विश्वस्याप्यणीयसाम् |
प्रणम्य सर्वभूतस्थमच्युतं पुरुषोत्तमम् ||
(विष्णु० १ | २ | १—५)
‘निर्विकार, शुद्ध, नित्य, परमात्मा, सर्वदा एकरूप, सर्वविजयी हरि,
हिरण्यगर्भ, शंकर, वासुदेव आदि नामों से प्रसिद्ध संसार-तारक, विश्व की उत्पत्ति,
स्थिति तथा लय के कारण, एक और अनेक स्वरूपवाले, स्थूल, सूक्ष्म—उभयात्मक
व्यक्ताव्यक्तस्वरुप एवं मुक्तिदाता भगवान् विष्णु को मेरा बारम्बार नमस्कार है |
जो जगन्मय भगवान् इस संसार की उत्पत्ति, पालन एवं विनाश के मूलकारण हैं, उन
सर्वव्यापी भगवान् वासुदेव परमात्मा को मेरा नमस्कार है | विश्वाधार, अत्यन्त
सूक्ष्म से अति सूक्ष्म, सर्वभूतों के अन्दर रहनेवाले, अच्युत पुरुषोत्तम भगवान्
को मेरा प्रणाम है |’
यहाँ अव्यक्त से निर्विकार, नित्य शुद्ध परमात्मा का निर्गुण स्वरुप समझना चाहिए | व्यक्त से सगुण स्वरुप समझना चाहिए | उस सगुण के भी स्थूल और सूक्ष्म— दो स्वरुप बतलाये गये हैं | यहाँ सूक्ष्म से सर्वव्यापी भगवान् वासुदेव को समझना चाहिए, जो कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश के भी मूल कारण हैं एवं सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म पुरुषोत्तम नाम से बतलाये गए हैं तथा स्थूलस्वरुप यहाँ संसार की उत्पत्ति, स्थिति और लय करनेवाले ब्रह्मा, विष्णु और महेश के वाचक हैं जो कि हिरण्यगर्भ हरि और शंकर के नाम से कहे गए हैं | इन्हीं सब वचनों से श्रीविष्णुभगवान् के उपर्युक्त पाँचों रूप सिद्ध होते हैं |.........शेष अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!