|| श्री हरी ||
आज की शुभ तिथि – पंचांग
माघ शुक्ल, द्वादशी, शुक्रवार, वि० स० २०६९
अनिर्वचनीय ब्रह्मानन्द की प्राप्ति के लिए
भगवद्भक्ति के सदृश किसी भी युग में अन्य कोई भी सुगम उपाय नहीं है | कलियुग में
तो है ही नहीं | परन्तु यह बात सबसे पहले समझने की है की भक्ति कहते किसे है ?
भक्ति कहने में जितनी सहज है, करने में उतनी ही कठिन है | केवल बाह्यआढम्बर का नाम
भक्ति नहीं है | भक्ति दिखाने की चीज नहीं है, वह तो ह्रदय का गुप्त धन है | भक्ति
का जितना स्वरुप गुप्त रहता है उतना ही अधिक मूल्यवान समझा जाता है | भक्ति-तत्व
का समझना बड़ा कठिन है | अवश्य ही उन भाग्यवानो
को इसके समझने में बहुत आयास या श्रम नहीं करना पड़ता, जो उस दयामय परमेश्वर
के शरण हो जाते है | अनन्य शरणागत भक्त को भक्ति का तत्व परमेश्वर स्वयं समझा देते
है | एक बार भी जो सच्चे हृदय से भगवान के शरण हो जाता है, भगवान उसे अभय कर देते
है, यह उनका व्रत है |
भगवान की शरणागति एक बड़े ही महत्व का साधन है परन्तु
उसमे अनन्यता होनी चाहिये | पूर्ण अनन्यता होने पर भगवान की और से तुरन्त ही
इच्छित उत्तर मिलता है | विभीषण अत्यन्त आतुर होकर एकमात्र श्रीरामके आश्रय में ही
अपनी रक्षा समझ कर श्रीराम के शरण आता है | भगवान श्रीराम उसे उसी क्षण अपना लेते
है | कौरवों की राजसभा में सब तरफ से निराश होकर देवी द्रौपदी ज्यों ही अशरण-शरण
श्री कृष्ण का स्मरण करती है त्यों ही चीर अनन्त हो जाता है | अनन्य शरण का यही
उदहारण है | यह शरणागति संसारिक कष्ट-निवृति के लिए थी | इसी भाव से भक्त को भगवान
के लिए ही भगवान के शरणागत होना चाहिये | फिर तत्व की उपलब्धि होने में विलम्ब नहीं होगा |
यदपि इस प्रकार भक्ति का परम तत्व भगवान के शरण होने
से ही जाना जा सकता है तथापि शास्त्र और संत-महात्माओ की उक्तिओं के आधार पर
अपना अधिकार न समझते हुए भी अपने चित की प्रसन्नता के लिए मैं जो कुक लिख रहा हूँ
इसके लिए भक्तजन मुझे क्षमा करे |
परमात्मा में परम अनन्य विशुद्ध प्रेम का होना ही
भक्ति कहलाता है | श्रीमद्धभगवतगीता में अनेक जगह इसका विवेचन है, जैसे
‘मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी |’ ( गीता
१३|१०)
‘मां च योअव्यभिचारेण भक्ति योगेन सेवते |’ (
गीता १४|२६)
आदि | इसी प्रकार का भाव नारद और
शाण्डिल्यसूत्रों में पाया जाता है | अनन्यप्रेम का साधारण स्वरुप यह है एक भगवान
के सिवा अन्य किसी में किसी समय भी आसक्ति
न हो, प्रेम की मग्नता में भगवाण के सिवा अन्य किसी का ज्ञान ही न रहे | जहाँ-जहाँ
मन जाये वही भगवान दृष्टीगोचर हों | यों होते-होते अभ्यास बढ़ जाने पर अपने-आपकी
विस्मृति होकर केवल एक भगवान ही रह जाये | यही विशुद्ध अनन्य प्रेम है |.....शेष
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—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!