※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

अनन्य प्रेम ही भक्ति है -1-


|| श्री हरी ||

आज की शुभ तिथि – पंचांग

माघ शुक्ल, द्वादशी, शुक्रवार, वि० स० २०६९
                                    

अनिर्वचनीय ब्रह्मानन्द की प्राप्ति के लिए भगवद्भक्ति के सदृश किसी भी युग में अन्य कोई भी सुगम उपाय नहीं है | कलियुग में तो है ही नहीं | परन्तु यह बात सबसे पहले समझने की है की भक्ति कहते किसे है ? भक्ति कहने में जितनी सहज है, करने में उतनी ही कठिन है | केवल बाह्यआढम्बर का नाम भक्ति नहीं है | भक्ति दिखाने की चीज नहीं है, वह तो ह्रदय का गुप्त धन है | भक्ति का जितना स्वरुप गुप्त रहता है उतना ही अधिक मूल्यवान समझा जाता है | भक्ति-तत्व का समझना बड़ा कठिन है | अवश्य ही उन भाग्यवानो  को इसके समझने में बहुत आयास या श्रम नहीं करना पड़ता, जो उस दयामय परमेश्वर के शरण हो जाते है | अनन्य शरणागत भक्त को भक्ति का तत्व परमेश्वर स्वयं समझा देते है | एक बार भी जो सच्चे हृदय से भगवान के शरण हो जाता है, भगवान उसे अभय कर देते है, यह उनका व्रत है |

भगवान की शरणागति एक बड़े ही महत्व का साधन है परन्तु उसमे अनन्यता होनी चाहिये | पूर्ण अनन्यता होने पर भगवान की और से तुरन्त ही इच्छित उत्तर मिलता है | विभीषण अत्यन्त आतुर होकर एकमात्र श्रीरामके आश्रय में ही अपनी रक्षा समझ कर श्रीराम के शरण आता है | भगवान श्रीराम उसे उसी क्षण अपना लेते है | कौरवों की राजसभा में सब तरफ से निराश होकर देवी द्रौपदी ज्यों ही अशरण-शरण श्री कृष्ण का स्मरण करती है त्यों ही चीर अनन्त हो जाता है | अनन्य शरण का यही उदहारण है | यह शरणागति संसारिक कष्ट-निवृति के लिए थी | इसी भाव से भक्त को भगवान के लिए ही भगवान के शरणागत होना चाहिये | फिर तत्व की उपलब्धि  होने में विलम्ब  नहीं होगा |

यदपि इस प्रकार भक्ति का परम तत्व भगवान के शरण होने से ही जाना जा सकता है  तथापि  शास्त्र और संत-महात्माओ की उक्तिओं के आधार पर अपना अधिकार न समझते हुए भी अपने चित की प्रसन्नता के लिए मैं जो कुक लिख रहा हूँ इसके लिए भक्तजन मुझे क्षमा करे |

परमात्मा में परम अनन्य विशुद्ध प्रेम का होना ही भक्ति कहलाता है | श्रीमद्धभगवतगीता में अनेक जगह इसका विवेचन है, जैसे

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी |’ ( गीता १३|१०)
मां च योअव्यभिचारेण भक्ति योगेन सेवते |’ ( गीता १४|२६)       

आदि | इसी प्रकार का भाव नारद और शाण्डिल्यसूत्रों में पाया जाता है | अनन्यप्रेम का साधारण स्वरुप यह है एक भगवान के सिवा अन्य किसी में किसी  समय भी आसक्ति न हो, प्रेम की मग्नता में भगवाण के सिवा अन्य किसी का ज्ञान ही न रहे | जहाँ-जहाँ मन जाये वही भगवान दृष्टीगोचर हों | यों होते-होते अभ्यास बढ़ जाने पर अपने-आपकी विस्मृति होकर केवल एक भगवान ही रह जाये | यही विशुद्ध अनन्य प्रेम है  |.....शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!