※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

अनन्य प्रेम ही भक्ति है -2-



|| श्री हरि: ||


आज की शुभ तिथि पंचांग


माघ शुक्ल, त्रयोदशी, शनिवार, वि० स० २०६९




गत ब्लॉग से आगे.....परमेश्वर में प्रेम करने का हेतु केवल परमेश्वर या उनका प्रेम ही हो-प्रेम के लिए ही प्रेम किया जाये, अन्य कोई हेतु न रहे | मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा, और इस लोक तथा परलोक के किसी भी पदार्थ की इच्छा की गंध भी साधक के मन में न रहे, त्रैलोक्य के राज्य के लिए भी उसका मन कभी न ललचाये | स्वयं भगवान प्रसन्न होकर भोग्य-पदार्थ प्रदान करने के लिए आग्रह करे तब भी न ले | इस बात के लिए यदि भगवान रूठ भी जायँ तो भी परवा न करे | अपने स्वार्थ की बात सुनते ही उसे अतिशय वैराग्य और उपरामता हो | भगवान की ओर से विषयों का प्रलोभन मिलनेपर मन में पाश्चाताप होकर यह भाव उदय हो कि, ‘अवश्य ही मेरे प्रेम में कोई दोष है, मेरे मन सच्चा विशुद्ध भाव होता और इन स्वार्थ की बातों को सुनकर यथार्थ में मुझे क्लेश होता तो भगवान इनके लिए मुझे कभी न ललचाते |’
   
    विनय, अनुरोध और भय दिखलाने पर भी परमात्मा के प्रेम के सिवा किसी भी हालत में दूसरी वस्तु स्वीकार न करे, अपने प्रेम-हठपर अचल रहे | वह यही समझता रहे कि भगवान की जबतक मुझे नाना प्रकार के विषयों  का प्रलोभन देकर ललचा रहे है और मेरी परीक्षा ले रहे है, तब तक मुझमें अवश्य  ही विषयासक्ति है | सच्चा प्रेम होता तो एक अपने प्रेमास्पद को छोड़कर दूसरी बात भी न सुन सकता | विषयों को देख, सुन और सहन कर रहा हूँ | इससे यह सिद्ध होता है कि मैं प्रेम का सच्चा अधिकारी  नहीं हूँ तभी तो भगवान मुझे लोभ दिखा रहे है | उत्तम तो यह था कि मैं विषयों की चर्चा सुनते ही मूर्छित होकर गिर पड़ता | ऐसी अवस्था नहीं होती, इसलिए निस्संदेह मेरे हृदय में कही-न-कहीं विषयवासना छिपी हुई है | यह है विशुद्ध प्रेम के ऊंचे साधन का स्वरुप |
.....शेष अगले ब्लॉग में


श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर


नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!