※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 24 फ़रवरी 2013

अनन्य प्रेम ही भक्ति है -3-



|| श्री हरि: ||
 आज की शुभ तिथि पंचांग
 माघ शुक्ल, चतुर्दशी, रविवार, वि० स० २०६९


                       

गत ब्लॉग से आगे.....ऐसा विशुद्ध प्रेम होने पर जो आनन्द होता है उसकी महिमा अकथनीय है | ऐसे प्रेम का वास्तविक महत्व कोई परमात्मा का अनन्य प्रेमी ही जानता है | प्रेम की साधारणत: तीन संज्ञाए हैं | गौण, मुख्य और अनन्य | जैसे नन्हे बछड़े को छोड़ कर गौ वन में चरने जाती है, वहाँ घास चरती है, उस गौ का प्रेम घास में गौण है, बछड़े में मुख्य है और अपने जीवन में अनन्य है, बछड़े के लिए घासका एवं जीवन के लिए बछड़े का भी त्याग कर सकती है | इसी प्रकार उत्तम साधक संसारिक कार्य करते हुए भी अनन्यभाव से परमात्मा का चिन्तन किया करते है | साधारण भगवत-प्रेमी  साधक अपना मन परमात्मा में लगाने की कोशिश करते है, परन्तु अभ्यास और आसक्तिवश भजन-ध्यान करते समय भी उनका मन विषयों में चला ही जाता है | जिनका भगवान में मुख्य प्रेम है, वे हर समय भगवान का स्मरण रखते हुए समस्त कार्य करते है और जिनका भगवान में अनन्यप्रेम हो जाता है उनका तो समस्त चराचर विश्व एक वासुदेवमय ही प्रतीत होने लगता है | ऐसे महात्मा बड़े दुर्लभ है | (गीता ७|१९)

इस प्रकार के अनन्य प्रेमी भक्तो में कई तो प्रेम में इतने गहरे डूब जाते है कि वे लोक दृष्टि में पागल से दीख पड़ते है | किसी-किसी-की बालकवत चेष्टा दिखायी देती है | उनके संसारिक कार्य छूट जाते है | कई ऐसी प्रकृति के भी प्रेमी पुरुष होते है जो अनन्य प्रेम में निमग्न रहने पर भी महान भागवत श्रीभरत जी की भाँती या भक्त राज श्री हनुमान जी की भाँती सदा ही रामकाजकरने को तैयार रहते है | ऐसे भक्तो के सभी कार्य लोकहितार्थ होते है | ये महात्मा एक क्षण के लिए भी परमात्मा को नहीं भुलाते, न भगवान ही उन्हें कभी भुला सकते है | भगवान ने कहा ही है :~

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति |
तस्याहं न प्रणश्यामि  स च मे न प्रणश्यति || (गीता ६|३०)      
   

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर           

   
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!