।। श्रीहरि: ।।
आज की शुभ तिथि – पंचांग
माघ शुक्ल, पूर्णिमा, सोमवार, वि० स० २०६९
वर्तमान युग प्राय: यन्त्रयुग हो रहा है,
जहाँ देखिये वहीं यन्त्र का साम्राज्य है । प्राय: बड़े-से-बड़े
राष्ट्रों से लेकर मामूली खाने-पीने-पहिनने तक की वस्तु आज यन्त्र के आश्रित है । परन्तु
इस यन्त्र से दुनिया में जो दुःख: का दावानल धधक उठा है, उसे
देख-सुनकर हृदय काँप उठता है । यन्त्र प्रयत्क्ष और अप्रयत्क्षरूप से अबाधित गति
से मानव-प्राणियों के सुख का सतत संहार कर रहा है । मानवेतर प्राणियों की तो
यन्त्र को कोई परवा ही नहीं है । यह इस प्रकार का संहारक पदार्थ है कि जो मानव
सहांरी असुरोंसे भी किसी अंश में बढ़ जाता है । आज संसार में चारों ओर पेट की
ज्वाला से जलते हुए प्राणियों का हाहाकार मचा हुआ है, करोड़ो
मनुष्य बेकार हो रहे हैं, असंख्य नर-नारी विविध रोगों से
ग्रस्त है, कर्मशील मानव अकर्मण्य और आलसी बन गए हैं; इसका एक प्रधान कारण यह
भयानक यन्त्रविस्तार है । यान्त्रिक सभ्यता का यदि इस प्रकार विस्तार होता रहा तो
सम्भवत: एक समय ऐसा आवे, जब की सब
प्रकार से धर्म-कर्म शून्य होकर मनुष्य ही मनुष्य का घातक बन जाय । प्रकांरान्तर से तो यह स्वरुप अब भी प्रत्यक्ष ही है ।
खेद का विषय है की ऋषि-मुनि-सेवित पवित्र भारत-भूमि में भी यन्त्रका
विस्तार दिनोदिन बढ़ रहा है । पहले तो कपडे और पाट आदि की ही मीलें थी,
जिनसे गरीबो का गृह-उद्योग,चर्खा आदि तो नष्ट ही हो गया था । अब
छोटी बड़ी सब तरह की मीलें बन रही है, जिससे ग्राम-उद्योग का
बचा-खुचा स्वरुप भी नष्ट हो रहा है । स्त्रियाँ धान कूटकर काम चलाती थी, अब चावलों की मीलें हो गयी है । गरीब विधवा बहने आटा पीसकर अपना और अपने
बच्चो का पेट भरती थी, अब गावँ-गाँव में आटा पीसने वाली कलकी
चक्किया बैठ गई है । तेलियों के कोलुहों को मीलों ने प्राय हड़प लिया है । चीनी का सबसे बड़ा
गरीबो का रोज़गारतों मीलों के द्वारा बड़ी ही बुरी तरह से मारा गया ।
अब कपडे धोने का काम भी मशीनों से शुरू हो गया है, जिससे
बिचारे गरीब धोबियों की रोटी भी मारी जाने का सम्भावना हो गयी है । यह तो निश्चित
है की सैकड़ों-हजारों आदमियों का काम जहाँ एक मील से होगा, वहाँ
लोगों में बेकारी ही फैलती दृष्टि आती है । बेकारी में असह्य होकर, अपने और परिवार की पेट की ज्वाला से पीड़ित होकर, इच्छा
न होने पर भी परिस्थिती में पड कर, मनुष्य को किस-किस
प्रकारसे बुरे कर्म करने पड़ते हैं और कहीं कहीं तो परिवार-का-परिवार आसुओसे तन-बदन
को धोता हुआ चुपचाप एक ही साथ जीवनलीला समाप्त कर लेता है । इस बात का पता बेकारों
को तो प्राय: है ही, अखबार पढने वाले लोग भी ऐसी घटनाओसे
अनजान नहीं है । ....शेष अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि
पुस्तक से, गीताप्रेस
गोरखपुर
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!