※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 25 जुलाई 2013

तीर्थो में पालन करने योग्य कुछ उपयोगी बाते -५-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, तृतीया, गुरूवार, वि० स० २०७०

 
(५)      जैसे तीर्थों में किये हुए स्नान, दान, जप, तप, यज्ञ, व्रत, उपवास, ध्यान, दर्शन, पूजा-पाठ, सेवा-सत्संग आदि महान फलदायक  होते है, वैसे ही वहाँ किये हुए झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार, हिन्सा आदि पापकर्म भी व्रजपाप हो जाते है | इसलिए तीर्थों में किसी प्रकार का किन्चितमात्र भी पाप कभी नहीं करना चाहिये |

शास्त्रों में तीर्थों की अनेक प्रकार की महिमा मिलती है | महाभारत में पुलस्त्य ऋषि में कहा है ‘पुष्करराज, कुरुक्षेत्र, गंगा और मगधदेशीय तीर्थो में स्नान करनेवाला मनुष्य अपनी सात-सात पीढयों का उद्धार कर देता है |’ (वनपर्व ८५|९२)

‘गंगा अपना नाम उच्चारण करनेवाले के पापों का नाश करती है, दर्शन करनेवाले का कल्याण करती है और स्नान-पान करने वाले की सात पीढयों तक को पवित्र करती है |’ (वनपर्व ८५|९३)

ऐसे-ऐसे वचनों को लोग अर्थवाद और रोचक मानने लगते है, किन्तु इनको रोचक एवं अर्थवाद न मानकर यथार्थ ही समझना चाहिये | इनका फलयदि पूरा न देखने में आता हो तो हमारे पूर्वसंचित पाप, वर्तमान नास्तिक वातावरण, पण्डे और पुजारियों के दुर्व्यवहार तथा तीर्थों में पाखण्डी, नास्तिक और भयानक कर्म करनेवालों के निवास आदि से लोगों में तीर्थ में श्रद्धा और प्रेम का कम हो जाना ही है |

 

अतएव कुसंग से बच कर तीर्थों में श्रद्धा-प्रेम रखते हुए सावधानी के साथ उपर्युक्त नियमों का भलीभाति पालन करके तीर्थों से लाभ उठाना चाहिये | यदि इन नियमों के पालन में कही कुछ कमी रह जाए तो इतना हर्ज नहीं परन्तु चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते भगवान के नाम का जप तथा गुण, प्रभाव और लीला के सहित उनके स्वरूप का ध्यान तो सदा-सर्वदा निरंतर ही करने की चेष्टा करनी चाहिये |

 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!