※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 29 जुलाई 2013

संत-महिमा-४-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, सप्तमी, सोमवार, वि० स० २०७०

संतभाव की प्राप्ति भगवत्कृपा से होती है

 
गत ब्लॉग से आगे..जो लोग भगवत्प्राप्ति को केवल अपने पुरुषार्थ से सिद्ध होने वाली मानते है, उनको भगवान प्रयत्क्ष दर्शन नहीं देते | हाँ ! उन्हें बड़ी कठिनाई से ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है परन्तु उसमे भी गुरु की शरण तो ग्रहण करनी ही पड़ती है | भगवान स्वयम कहते है ‘उस ज्ञान को तू समझ; श्रोत्रिय ब्रहमनिष्ठ आचर्य के पास जाकर उनको भलीभाति दण्डवत प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से परमात्म तत्व को भालीभाती जानने वाले वे ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्व ज्ञान का उपदेश करेंगे |’(गीता ४|३४)

श्रुति कहती है ‘उठों, जागों और महानपुरुषों के समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करों | जिस प्रकार छुरे की धार तीक्ष्ण और दुस्तर होती है, तत्वज्ञानी लोग उस पथ को भी वैसा ही दुर्गम बताते है |’(कठ० १|३|१४)

भगवत्प्राप्ति में केवल अपना पुरुषार्थ मानने का कारण-अहंकाररुपी दोष है | भक्त के इस अहंकार दोष को नष्ट करने के लिए भगवान उसे भीषण संकट में डाल कर यह बात प्रयत्क्ष दिखला देते है की कार्य सिद्धि में अपनी सामर्थ्य मानना मनुष्य की एक बड़ी गलती है इस प्रकार अहंकारनाश के लिए जो विपति में डालना है, यह भी भगवान की विशेष कृपा है | शेष अगले ब्लॉग में ...     

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!