※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 30 जुलाई 2013

संत-महिमा-5-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, अष्टमी, मंगलवार, वि० स० २०७०

संतभाव की प्राप्ति भगवत्कृपा से होती है

 
गत ब्लॉग से आगे….केनोपनिषद में एक कथा है-इन्द्र,  अग्नि, वायु और देवों ने विजय में अपने पुरुषार्थ को कारण समझा, इसलिए उन्हें गर्व हो गया | तब भगवान ने उन पर कृपा करके यक्ष के रूप में अपना परिचय दिया और उनके गर्व का नाश किया | जब अग्नि, वायुदेवता परास्त हो गए और समझ गए की हमरे अन्दर वस्तुत: कुछ भी सामर्थ्य नहीं है, तब भगवान ने विशेष दया करके उमा के द्वारा इंद्र को अपना यथार्थ परिचय दिया | सफलता में अपना पुरुषार्थं मानकर मनुष्य गर्व करता है परन्तु अनिवार्य विपति में जब अपने पुरुषार्थ से निराश हो जाता है | तब निरुपाय होकर भगवान के शरण जाता है और आर्त होकर पुकार उठता है-‘नाथ ! मुझे इस घोर संकट स बचाईये | मैं सर्वथा असमर्थ हूँ | मैं जो अपने बल से अपना उद्धार मानता था, वह मेरी भरी भूल थी | राग-द्वेष और काम-क्रोधादि शत्रुओं के दबाने से अब मुझे इस बात का पूरा पता लग गया है की आपकी कृपा के बिना मेरे लिए इनसे छुटकारा पाना कठिन ही नहीं, वरं असम्भव-सा है |’ जब अहंकार को छोड़कर इस तरह सरल भाव से सच्चे ह्रदय से मनुष्य भगवान के शरण हो जाता है तब भगवान उसे अपना लेते है और आश्वासन देते है, क्योकि भगवान की यह घोषणा है-‘जो एक बार भी मेरे शरण होकर कहता है, मैं तुम्हारा हूँ, (तुम मुझे अपना लो) मैं उसे सब भूतों से अभय कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है |’ (वा० रा० ६|१८|१३) इस पर भी मनुष्य उनके शरण होकर आना कल्याण नहीं करता, यह बड़े आश्चर्य की बात है |

दयासागर भगवान की जीवों पर इतनी अपार दया है की जिसकी कोई सीमा ही नहीं है | वस्तुत: उन्हें दयासागर कहना भी उनकी स्तुति के ब्याज से निन्दा ही करना है | क्योकि सागर तो सीमावाला है, परन्तु भगवान की दया की तो कोई सीमा ही नहीं है अच्छे-अच्छे पुरुष भी भगवान की दया की जितनी कल्पना करते है, वह उससे भी बहुत ही बढ़कर है | उसकी कोई कल्पना ही नहीं की जा सकती | शेष अगले ब्लॉग में ...   


श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!