※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 28 जुलाई 2013

संत-महिमा-३-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण कृष्ण, षष्ठी, रविवार, वि० स० २०७०

संतभाव की प्राप्ति भगवत्कृपा से होती है

 

गत ब्लॉग से आगे..जड धन हमारी चाह के बदले में वैसी चाह नहीं कर सकता, परन्तु भगवान तो, जो उनको चाहता हैं, उसको स्वयं चाहते है और यह निश्चित सत्य है की भगवान की चाह कभी निष्फल नहीं होती, वह अमोघ होती है | अतएव भगवान की चाह से बिना ही प्रयत्न किये भक्त की चाह आप पूर्ण हो जाती है | पर इतना स्मरण रखना चाहिये की भक्त के भक्त के चाहने पर ही भगवान उसे चाहते है | यदि यह कहे की की भक्त के बिना चाहे भगवान क्यों नहीं चाहते ? तो इसका उत्तर यह है की भगवान में वस्तुत: ‘चाह’ है ही नहीं, भक्त की चाह से ही उनमे चाह पैदा होती है | इसपर यह शंका है की जब भक्त की चाह से ही भगवान में चाह होकर भगवान मिलते है तो केवल भगवत्कृपा की प्रधानता कहाँ रही? चाह भी तो एक प्रयत्न ही है ? इसका उत्तर यह है की भगवान को प्राप्त करने की इच्चामात्र को प्रयत्न नहीं कहा जा सकता | और यदि इसको प्रयत्न माने तो इतना प्रयत्न तो अवश्य ही करना पड़ता है | परन्तु ध्यान देकर देखने से मालूम होगा की इच्छा करने मात्र से प्रप्थोने वाले एक भगवान ही है | दुनिया में लोग नाना प्रकार के पदार्थों की इच्छा करते है; परन्तु इच्छा करने से ही उन्हें कुछ नहीं मिलता | इच्छा हों, प्रारब्ध का संयोग हों और फिर प्रयत्न हो तब भौतिक पदार्थ मिलता है | पर भगवान के लिए तो इच्चामात्र से ही काम हो जाता है | इच्छा करने पर जो प्रयत्न होता है वह प्रयत्न तो भगवान स्वयं करा लेते है | साधक तो केवल निमित् मात्र बनता है | अर्जुन से भगवान ने कहा-‘ये सब मेरे द्वारा मारे हुए है, तू तोह केवल निमित्र मात्र बन जा |’(गीता ११|३३) इसी प्रकार अपनी प्रप्तिरूप कार्य की सिद्धि में भी सब कुछ भगवान ही कर लेते है | इच्छा करने वाले भक्तों को केवल निमितमात्र बनाते है | शेष अगले ब्लॉग में ...   

 

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!