※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 6 जून 2016

मनुष्य का कर्तव्य

|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा, सोमवार, वि०सं० २०७३

*मनुष्य का कर्तव्य*
गत ब्लॉग से आगे.......यदि आपको किसी भी धर्म, शास्त्र अथवा प्राचीन महात्माओं के लेखपर विश्वास न हो, तो कम-से-कम एक श्रीमद्भगवद्गीता पर तो जरुर विश्वास करना चाहिए | क्योंकि गीता का उपदेश प्रायः सभी मतों के अनुकूल पड़ता है | इसपर विश्वास करके उसी की शरण होकर साधन में लग जाना चाहिए | कदाचित् ईश्वर के अस्तित्व में भी आपके मनमें संदेह हो तो वर्तमान समय में आपकी दृष्टि में जगत में जितने श्रेष्ठ पुरुष हैं उन सबमें जो आपको सबसे श्रेष्ठ मान्य हों, उन्हीं के बतलाये हुए मार्गपर कमर कसकर चलना चाहिए | यदि वर्तमानकाल के किसी भी साधु-महात्मा या सत्पुरुष पर आपका विश्वास न हो, तो आपको यह विचार करना चाहिए कि क्या सारे संसार में हमसे उत्तम कल्याणमार्ग के ज्ञाता कोई नहीं हैं ? यदि यह कहते हों कि ‘हैं तो सही पर हमको नहीं मिले |’ तो उनकी खोज करनी चाहिए, अथवा यदि यह समझते हों कि ‘ हमसे तो बहुत-से पुरुष श्रेष्ठ हैं परन्तु कल्याणमार्ग के भलीभांति उपदेश करनेवाले पुरुष संसार में बहुत ही थोड़े हैं, जो हैं उनका भी हम-जैसे अश्रद्धालुओं को मिलना कठिन है, और यदि कहीं मिल भी जाते हैं तो पहचानने की योग्यता न होनेके कारण हम उन्हें पहचान नहीं सकते |’ ऐसी अवस्था में आपके लिए यह तो अवश्य ही विचारणीय है कि आप जो कुछ चेष्टा कर रहे हैं उससे क्या आपका यथार्थ कल्याण हो जायगा ? यदि संतोष नहीं है तो कम-से-कम अपनी उन्नति के लिए आपको उत्तरोत्तर विशेष प्रयत्न तो करना ही चाहिए | शम, दम, धृति, क्षमा, शांति, सन्तोष, जप, तप, सत्य, दया, ध्यान और सेवा आदि गुण और कर्म आपके विचार में जो उत्तम प्रतीत हों उनका ग्रहण तथा प्रमाद, आलस्य, निद्रा, विषयासक्ति, झूठ, कपट, चोरी-जारी आदि दुर्गुण और दुष्कर्मों का त्याग करना चाहिए | प्रत्येक कर्म करने से पूर्व सावधानी के साथ यह सोच लेना चाहिए कि मैं जो  कुछ कर रहा हूँ वह मेरे लिए यथार्थ लाभदायक है या नहीं और उसमें जहाँ कहीं भी त्रुटि मालूम पड़े, उसका बिना विलम्ब सुधार कर लेना चाहिए | मनुष्य जन्म बहुत ही दुर्लभ है, लाखों रूपये खर्च करने पर भी जीवन का एक क्षण नहीं मिल सकता | ऐसे मनुष्य-जीवन का समय निद्रा, आलस्य, प्रमाद और अकर्मण्यता में व्यर्थ कदापि नहीं खोना चाहिए | जो मनुष्य अपने इस अमूल्य समय को बिना सोचे-विचारे बितावेगा, उसे आगे चलकर अवश्य ही पछताना पड़ेगा | कवि ने क्या ही सुंदर कहा है—
बिना बिचारे जो करे सो पाछे पछिताय |
काम बिगारे आपनो जग में होत हँसाय ||
जगमें होत हँसाय चित्त में चैन न पावै |
खान पान सनमान राग रँग मन नहिं भावै ||
कह गिरधर कविराय कर्म गति टरट न टारे |
खटकत है जिय मांहि किया जो बिना बिचारे ||
        अतः अपनी बुद्धि के अनुसार मनुष्य को अपना समय बड़ी ही सावधानी से ऊँचे-से-ऊँचे काम में लगाना चाहिए जिससे आगे चलकर पश्चात्ताप न करना पड़े | नहीं तो गोस्वामी जी के शब्दों में—
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ |
कालहि कर्महि ईश्वरहि मिथ्या दोस लगाइ ||
-सिवा पछताने के अन्य कोई उपाय न रह जायगा | यह मनुष्य-जीवन बहुत ही महँगे मोल से मिला है | काम बहुत करने हैं, समय बहुत थोड़ा है, अतएव चेतकर अपने जीवन के बचे हुए समय को बुद्धिमानी के साथ केवल कल्याण के मार्ग में ही लगाना चाहिए |.....शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!