|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या, रविवार, वि०सं० २०७३
*मनुष्य
का कर्तव्य*
विचार की दृष्टि से देखनेपर यह स्पष्ट ही
समझ में आता है कि आजकल संसार में प्रायः सभी लोग आत्मोन्नति की ओरसे विमुख-से हो
रहे हैं | ऐसे बहुत ही कम लोग हैं जो आत्मा के उद्धार के लिए चेष्टा करते हैं |
कुछ लोग जो कोशिश करते हैं उनमें भी अधिकांश किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे हैं |
श्रद्धा-भक्ति की कमी के कारण यथार्थ मार्गदर्शक का भी अभाव-सा हो रहा है | समय,
संग और स्वभाव की विचित्रता से कुछ लोग तो साधन की इच्छा होनेपर भी अपने विचारों
के अनुसार चेष्टा नहीं कर पाते | इसमें प्रधान कारण अज्ञता के साथ-ही-साथ ईश्वर,
शास्त्र और महर्षियों पर अश्रद्धा का होना है | परन्तु यह श्रद्धा किसी के करवाने
से नहीं हो सकती | श्रद्धा-संपन्न पुरुषों के संग और
निष्कामभाव से किये हुए तप, यज्ञ, दान, दया और भगवद्भक्ति आदि साधनों से हृदय के
पवित्र होनेपर ईश्वर, परलोक, शास्त्र और महापुरुषों में प्रेम एवं श्रद्धा होती है
| श्रद्धा ही मनुष्य का
स्वरुप है, इस लोक और परलोक में श्रद्धा
ही उसकी वास्तविक प्रतिष्ठा है | श्रीगीता में कहा है—
सत्त्वानुरूपा सर्वस्व
श्रद्धा भवति भारत |
श्रद्धामयोयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ||
(१७ | ३)
‘हे भारतवंशी अर्जुन ! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के
अनुरूप होती है तथा यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला हैवह
स्वयं भी वही है | अर्थात् जिसकी जैसी
श्रद्धा है, वैसा ही उसका स्वरुप समझा जाता है |’ अतः मनुष्य को सच्चे श्रद्धा-संपन्न बनने की
कोशिश करनी चाहिए |
आप ईश्वर के किसी
भी नाम या किसी भी रूप में श्रद्धा करें, आपकी वह श्रद्धा ईश्वर में ही समझी जायगी
क्योंकि सभी नाम-रूप ईश्वर के हैं | आपको जो धर्म प्रिय हो, जिस ऋषि, महात्मा या
महापुरुषपर आपका विश्वास हो, आप उसीपर श्रद्धा करके उसी के अनुसार चल सकते हैं |
आवश्यकता श्रद्धा-विश्वास की है | ईश्वर, धर्म और परलोक आदि विशेष करके श्रद्धा के
ही विषय हैं | इनका
प्रत्यक्ष तो अनेक प्रयत्नों के साथ विशेष परिश्रम करनेपर होता है | आरम्भ में तो
इन विषयों के लिए किसी-न-किसी पर विश्वास ही करना पड़ता है, ऐसा न करे तो मनुष्य
नास्तिक बनकर श्रेय के मार्ग से गिर जाता है, साधन से विमुख होकर होकर पतित हो
जाता |.....शेष अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजीतत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!