आज की शुभ तिथि – पंचांग
पौष शुक्ल,एकादशी,मंगलवार, वि० स० २०६९
बहुत-से सज्जन मन में शंका उत्पन्न कर इस
प्रकार के प्रश्न करते हैं कि दो प्यारे मित्र जैसे आपस में मिलते हैं क्या इसी
प्रकार इस कलिकाल में भी भगवान् के प्रत्यक्ष दर्शन मिल सकते हैं ? यदि सम्भव है
तो ऐसा कौन-सा उपाय है कि जिससे हम उस मनोमोहिनी मूर्ति का शीघ्र ही दर्शन कर सकें
? साथ ही यह भी जानना चाहते हैं, क्या वर्तमान काल में ऐसा कोई पुरुष संसार में है
जिसको उपर्युक्त प्रकार से भगवान् मिले हों ?
वास्तव में तो इन तीनों प्रश्नों का उत्तर वे
ही महान पुरुष दे सकते हैं जिनको भगवान् की उस मनोमोहिनी मूर्ति साक्षात् दर्शन
हुआ हो |
यद्यपि मैं एक साधारण व्यक्ति हूँ तथापि
परमात्मा की और महान पुरुषों की दया से केवल अपने मनोविनोदार्थ तीनों प्रश्नों के
सम्बन्ध में क्रमशः कुछ लिखने का साहस कर रहा हूँ |
(१)
जिस तरह सत्ययुगादि में ध्रुव,
प्रह्लादादि को साक्षात् दर्शन होने के प्रमाण मिलते हैं उसी तरह कलियुग में भी
सूरदास, तुलसीदासादि बहुत-से भक्तों को प्रत्यक्ष दर्शन होने का इतिहास मिलता है;
बल्कि विष्णुपुराणादि में तो सत्ययुग की अपेक्षा कलियुग में भगवत-दर्शन होना बड़ा
ही सुगम बताया है | श्रीमद्भागवत् में भी कहा—
कृते यद् ध्यायतो विष्णुं
त्रेतायां यजतो मखैः |
द्वापरे परिचर्यायां कलौ
तद्धरिकिर्त्तानात् || (१२
| ३ | ५२)
‘सत्ययुग में निरंतर विष्णु का ध्यान करने से, त्रेता में यज्ञद्वारा
यजन करने से और द्वापर में पूजा (उपासना) करने से जो परमगति की प्राप्ति होती है
वही कलियुग में केवल नाम-कीर्तन से मिलती है |’
जैसे अरणी की लकड़ियों को मथने से अग्नि
प्रज्वलित हो जाती है, उसी प्रकार सच्चे हृदय की प्रेमपूरित पुकार की रगड़ से
अर्थात् उस भगवान् के प्रेममय नामोच्चारण की गम्भीर ध्वनि के प्रभावसे भगवान् भी
प्रकट हो जाते हैं | महर्षि पतंजलि ने भी अपने योगदर्शन में कहा है—
स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोग:
|
(२ | ४४)
‘नामोच्चार से इष्टदेव
परमेश्वर के साक्षात् दर्शन होते हैं |’
जिस तरह सत्य-संकल्पवाला योगी जिस वस्तु के लिए संकल्प करता है वही वस्तु प्रत्यक्ष
प्रकट हो जाती है, उसी तरह शुद्ध अन्तःकरणवाला भगवान् का सच्चा अनन्य प्रेमी भक्त
जिस समय भगवान् के प्रेममें मग्न होकर भगवान् की जिस प्रेममयी मूर्ति के दर्शन
करने की इच्छा करता है उस रूप में ही भगवान् तत्काल प्रकट हो जाते हैं | गीता अ०
११ श्लोक ५४ में भगवान् ने कहा है—
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन |
ज्ञातुं
द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ||
‘हे श्रेष्ठ तपवाले अर्जुन ! अनन्य भक्ति करके तो इस प्रकार (चतुर्भुज)
रूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखने के लिए और तत्त्वसे जानने के लिए तथा प्रवेश करने के
लिए अर्थात् एकीभाव से प्राप्त होने के लिए भी शक्य हूँ |’
एक प्रेमी
मनुष्य को यदि अपने दूसरे प्रेमी से मिलने की उत्कट इच्छा हो जाती है और यह खबर
यदि दूसरे प्रेमी को मालूम हो जाती है तो वह स्वयं बिना मिले नहीं रह सकता, फिर
भला यह कैसे संभव है कि जिसके समान प्रेम के रहस्य को कोई भी नहीं जानता वह
प्रेममूर्ति परमेश्वर अपने प्रेमी भक्त से बिना मिले रह सके ?
अतएव
सिद्ध होता है कि वह प्रेममूर्ति परमेश्वर सब काल तथा सब देश में सब मनुष्यों को
भक्तिवश होकर अवश्य ही प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं |
....शेष अगले ब्लॉग में