|| श्री हरि||
मान-प्रतिष्ठा को त्यागकर श्रीअक्रूरजी की तरह भगवान् के चरण-कमलों से चिह्नित रजमें लोटनेसे भगवान् प्रत्यक्ष मिल सकते हैं |
आज की शुभ तिथि – पंचांग
पौष शुक्ल,चतुर्दशी,शनिवार, वि० स० २०६९
मान-प्रतिष्ठा को त्यागकर श्रीअक्रूरजी की तरह भगवान् के चरण-कमलों से चिह्नित रजमें लोटनेसे भगवान् प्रत्यक्ष मिल सकते हैं |
पदानि
तस्याखिललोकपालकिरीटजुष्टामलपादरेणोः |
ददर्श
गोष्ठे क्षितिकौतुकनि विलक्षितान्यब्जयवाङ्कुशाद्यैः ||
तद्दर्शनाह्लादविवृद्धसम्भ्रमः
प्रेम्णोर्ध्वरोमाश्रुकलाकुलेक्षणः |
रथादवस्कन्द्य
स तेष्वचेष्टत प्रभोरमून्यङ्घ्रिरजांस्यहो इति ||
देहंभृतामियानर्थ
हित्वा दम्भं भियं शुचम् |
संदेशाद्यो हरेर्लिङ्गदर्शनश्रवणादिभिः ||
(
श्रीमद्भा० १० | ३८ | २५-२७ )
जिनके चरणों की परम पावन रज को सम्पूर्ण
लोकपालजन आदरपूर्वक मस्तक पर चढ़ाते हैं ऐसे पृथ्वी के आभूषण रूप पद्म, यव,
अंकुशादि अपूर्व रेखाओं से अंकित श्रीकृष्ण के चरणचिह्नों को गोकुल में प्रवेश
करते समय अक्रूर जी ने देखा |
उनको देखते ही आह्लाद से व्याकुलता बढ़ गयी,
प्रेमसे शरीर में रोमांच हो आये, नेत्रों से अश्रुपात होने लगे | अहो ! यह प्रभु
के चरणों की धूलि है, ऐसे कहते हुए रथ से उतरकर अक्रूरजी वहाँ लोटने लगे |
देहधारियों का यही एक प्रयोजन है कि गुरु के
उपदेशानुसार निर्दम्भ, निर्भय और विगतशोक होकर भगवान् की मनोमोहिनी मूर्ति का
दर्शन और उनके गुणों का श्रवणादि करके अक्रूर की भांति हरि की भक्ति करें |
गोपियों के प्रेम को देखकर ज्ञान और योग के
अभिमान को त्यागनेवाले उद्धव की तरह प्रेम में विह्वल होनेपर भगवान् प्रत्यक्ष मिल
सकते हैं |
एक पलको प्रलय के समान बितानेवाली रुक्मिणी
के सदृश श्रीकृष्ण से मिलने के लिए हार्दिक विलाप करने से भगवान् प्रत्यक्ष दर्शन
दे सकते हैं |
महात्माओं की आज्ञा में तत्पर हुए राजा
मयूरध्वज की तरह मौका पड़नेपर अपने पुत्र का मस्तक चीरने में भी नहीं हिचकनेवाले
प्रेमी भक्त को भगवान् प्रत्यक्ष दर्शन दे सकते हैं |
‘बी० ए०’, ‘एम्० ए०’, ‘आचार्य’ आदि परीक्षाओं
की जगह भक्त प्रह्लाद की तरह नवधा भक्ति की* सच्ची परीक्षा देने से भगवान्
प्रत्यक्ष दर्शन दे सकती हैं |
भगवान् केवल दर्शन ही नहीं देते वरं द्रौपदी,
गजेन्द्र, शबरी, विदुरादि की तरह प्रेमपूर्वक अर्पण की हुई वस्तुओं को वे स्वयं
प्रकट होकर खा सकते हैं |
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति |
तदहं
भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः || (गीता ९ | २६ )
पत्र,
पुष्प, फल, जल इत्यादि जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से अर्पण करता है, उस
शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि
मैं सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ | अतएव सबको
चाहिए कि परम प्रेम और उत्कंठा के साथ भगवद्दर्शन के लिए व्याकुल हों |
जयदयाल
गोयन्दका सेठजी , तत्त्वचिन्तामणि पुस्तक , गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !!
नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!