※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 26 दिसंबर 2012

श्रीमद्भगवद्गीता का प्रभाव


!! ॐ श्री परमात्मने नमः !!

 *  गीता का आरम्भ और पर्यवसान  *

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प्रश्न गीता क्या सिखलाती है ?

उत्तरआत्मतत्त्व का ज्ञान और ईश्वर की भक्ति, स्वार्थ का त्याग और धर्मपालन के लिए प्राणोत्सर्ग ! इन चारों में से जो एक गुण को भी जीवन में क्रियात्मक रूप दे देता है एक का भी सम्यक् पालन कर लेता है, वह स्वयं मुक्त और पवित्र होकर दूसरों का कल्याण करने में समर्थ हो जाता है | जिनको परमात्म-दर्शन  की अत्तीव तीव्र उत्कंठा हो जो यह चाहते हो कि हमें शीघ्र-से-शीघ्र परमात्मा की प्राप्ति हो, उन्हें धर्म के लिए अपने प्राणों को हथेली में लिए रहना चाहिये | जो ईश्वर की आज्ञा समझकर धर्म की वेदी पर प्राणों का विसर्जन करता है वस्तुत: उसका प्राण-विसर्जन परमात्मा के लिए ही है | अत: ईश्वर को भी तत्काल उसका कल्याण करने के लिए बाध्य होना पढता है | जैसे गुरु गोविन्द सिंह के पुत्रों ने धर्मार्थ अपने प्राणों की आहुति देकर मुक्ति प्राप्त की, वैसे ही जो धर्म अर्थात् ईश्वर के लिए सर्वस्व होम देने को सदा-सर्वदा प्रस्तुत रहता है उसके कल्याण में संदेह ही क्या है ?
स्वधर्मे निधनं श्रेय: (गीता ३|३५)
    आत्मतत्त्व का यथार्थ ज्ञान हो जाने पर मनुष्य निर्भय हो जाता है, क्योंकि वह इस बात को अच्छी तरह समझ जाता है कि आत्मा का कभी नाश होता ही नहीं |  

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे || (गीता २ | २०)

     जब तक मनुष्य के अन्तःकरण में किसी का किंचित् भी भय है, तब तक समझ लेना चाहिए की वह आत्मतत्त्व से बहुत दूर है | जिनको ईश्वर की शरणागति के रहस्य का ज्ञान है, वही पुरुष धर्म के लिए ईश्वर के लिए हँसतेहँसते प्राणों को होम सकता है | यही उसकी कसौटी है | वास्तव में स्वार्थ का त्याग भी यही हैं | भगवद्-वचनों के महत्त्व और रहस्य को समझने वाला व्यक्ति आवश्यकता पड़ने पर स्त्री, पुत्र और धनादि की तो बात ही क्या, प्राणोत्सर्ग तक कर देने में तिलभर भी पीछे नहीं रहता सदा तैयार रहता है | जो व्यक्ति धर्म अर्थात् कर्तव्य-पालन  का तत्त्व जान जाता है उसकी प्रत्येक क्रिया में मान-बड़ाई आदि बड़े-से-बड़े स्वार्थ का आत्यंतिक अभाव झलकता  रहता है | ऐसे पुरुषो का जीवन-धारण केवल भगवत्प्रीत्यर्थ अथवा लोकहितार्थ ही समझा जाता है |


प्रश्न- गीता में सबसे बढ़कर श्लोक कौन-सा है ?

उत्तर सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
          अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: || (गीता १८ |६६)

      इस श्लोक में कथित शरण के प्रकार की व्याख्या श्रीमदभगवद्गीता के अध्याय ९ श्लोक ३४ एवं अध्याय १८ श्लोक ६५ में भली भाँति की गयी है |


प्रश्न भगवान ने अपने दिये हुए उपदेशों में से गुह्यतम उपदेश किसको बतलाया है ?

उत्तर – ‘मन्मना भव मद्भक्तो  मद्याजी मां नमस्कुरु|’, ‘सर्वधर्मान्परित्यज्यआदि को (गीता १८ | ६५-६६) |


प्रश्न- गीता सुनाने में भगवान का क्या लक्ष्य था?

उत्तरअर्जुन को पूर्णतया अपनी शरण में लाना |

प्रश्न इसकी पूर्ति कहाँ होती है ?

उत्तर अध्याय १८ श्लोक ७३ में-

नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत |
स्थितोऽस्मि  गतसंदेह : करिष्ये वचनम् तव ||

हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है, मुझे स्मृति प्राप्त हुई है, इसलिए मैं संशय रहित हुआ स्थित हूँ और आपकी आज्ञा का पालन करूँगा |  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

जयदयाल गोयन्दका, तत्व-चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर