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ॐ श्री परमात्मने नमः !!
गत
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* गीतोपदेश का आरम्भ और पर्यवसान *
गीता के मुख्य उपदेश का आरम्भ ‘अशोच्यानन्वशोचस्त्वम्’ आदि श्लोक से हुआ है | इसी से लोग इसे गीता का बीज कहते हैं, परन्तु ‘कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः’ (२|७) आदि श्लोक भी बीज कहा गया है; क्योंकि अर्जुन के भगवत्-शरण होने के कारण ही भगवान् द्वारा यह गीतोपनिषद् कहा गया | गीता का पर्यवसान – समाप्ति शरणागति में है | यथा –सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज |
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः || (गीता १८|६६)
‘सर्व धर्मों को अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों के आश्रय को त्यागकर केवल एक मुझ सच्चिदानंदघन वासुदेव परमात्मा की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो, मैं तुझको सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर |’
प्रश्न – भगवान अर्जुन को क्या सिखलाना चाहते थे ?
उत्तर – तत्त्व और प्रभाव सहित भक्ति प्रधान कर्मयोग |
प्रश्न – गीता में प्रधानत: धारण करने योग्य विषय कितने हैं ?
उत्तर – भक्ति, कर्म, ध्यान और ज्ञानयोग | ये चारों विषय दोनों निष्ठाओं (सांख्य और कर्म ) के अंतर्गत है |
प्रश्न – गीता के अनुसार परमात्मा को प्राप्त हुए सिद्ध पुरुषों के प्राय: सम्पूर्ण लक्षणों का, माला की मणियों के सूत्र की तरह आधार रूप लक्षण क्या है ?
उत्तर – ‘समता’
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः |
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः || (गीता ५|१९)
‘जिनका मन समत्व भाव में स्थित है ; उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया अर्थात् वे जीते हुए ही संसार से मुक्त हैं, क्योंकि सच्चिदानंदघन परमात्मा निर्दोष और सम हैं, इससे वे सच्चिदानंदघन परमात्मा में स्थित है |
मान-अपमान, सुख-दुःख, मित्र-शत्रु और ब्राह्मण-चंडाल आदि में जिनकी समबुद्धि है, गीता की दृष्टि से वे ही ज्ञानी हैं |'.....शेष अगले ब्लॉग में
नारायण ! नारायण !! नारायण
!!! नारायण !!! नारायण !!!
जयदयाल गोयन्दका, तत्व-चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर