※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 24 दिसंबर 2012

श्रीमद्भगवद्गीता का प्रभाव


!! ॐ श्री परमात्मने नमः !!

गीता का विषय-विभाग

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       प्रथम अध्याय में तो मोह और स्नेह के कारण अर्जुन के शोक और विषाद का वर्णन होने से उसका नाम अर्जुन विषाद योग पड़ा | इसमें कर्म, उपासना और ज्ञान के उपदेश का विषय नहीं है | इस अध्याय का उदेश्य अर्जुन को उपदेश का अधिकारी सिद्ध करना ही है | द्वितीय अध्याय में सांख्य और निष्काम-कर्मयोग-विषय का वर्णन है | प्रधानतया अ० २ श्लोक ३९ से अ० ६ श्लोक ४ तक भगवान् ने विस्तारपूर्वक निष्काम-कर्मयोग के विषय का अनेक प्रकार की युक्तियों से वर्णन किया गया है | भक्ति और ज्ञान का विषय भी प्रसंगवश आ गया है, जैसे अ० ५ श्लोक १३ से २६ तक ज्ञान और अ० ४ श्लोक ६ से ११ तक भक्ति | शेष छठे अध्याय में ध्यानयोग का प्रतिपादन किया गया है | दूसरे शब्दों में हम इसे मन  के संयम का विषय कह सकते हैं | इसलिये इसका नाम आत्मसंयम योग रखा गया  | अध्याय ७ से १२ तक तत्त्व और प्रभाव के सहित भगवान की भक्ति का रहस्य अनेक प्रकार की युक्तियों द्वारा समझाया गया है | इसी से भक्ति के साथ  भगवान ने ज्ञान-विज्ञान आदि शब्दों का प्रयोग किया है | इन छ: अध्यायों के षट्क को भक्तियोग या उपासना-काण्ड पद दे दिया जा सकता है | अध्याय १३ और १४ में तो मुख्यता ज्ञान-योग का ही प्रतिपादन किया गया है | १५वें अध्याय में भगवान  के रहस्य और प्रभाव सहित भक्तियोग का वर्णन है | १६वें अध्याय में दैवी और असुरी सम्पदावाले पुरुष के लक्षण अर्थात् श्रेष्ठ और नीच पुरुषों के आचरण का उल्लेख किया गया है | इसके द्वारा मनुष्य को विधि-निषेध का बोध होता है, अत: इसे ज्ञानयोग प्रतिपादक किसी अंश में मान लेने में कोई आपत्ति नहीं है |१७वें अध्याय में श्रद्धा का तत्व समझाने के लिये प्राय: निष्काम-कर्मयोगबुद्धि से यज्ञ, दान और तपादि कर्मों का विभाग किया गया है, अतः इसे निष्काम-कर्मयोग-विषय का ही अध्याय समझना चाहिये | १८वें में उपसंहार-रूप से भगवान् ने सभी विषयों का वर्णन किया है | जैसे श्लोक १ से १२ और ४१ से ४८ तक कर्मयोग, १३ से ४० और ४९ से ५५ तक ज्ञानयोग तथा ५६ से ६६ तक कर्मसहित भक्तियोग |.....शेष अगले ब्लॉग में    

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

जयदयाल गोयन्दका, तत्व-चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर