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ॐ श्री परमात्मने नमः !!
गीता का विषय-विभाग
गत
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प्रथम अध्याय में तो मोह और स्नेह के
कारण अर्जुन के शोक और विषाद का वर्णन होने से उसका नाम अर्जुन विषाद योग पड़ा |
इसमें
कर्म,
उपासना
और ज्ञान के उपदेश का विषय नहीं है | इस अध्याय
का उदेश्य अर्जुन को उपदेश का अधिकारी सिद्ध करना ही है | द्वितीय
अध्याय में सांख्य और निष्काम-कर्मयोग-विषय का वर्णन है | प्रधानतया
अ० २ श्लोक ३९ से अ० ६ श्लोक ४ तक भगवान् ने विस्तारपूर्वक निष्काम-कर्मयोग के
विषय का अनेक प्रकार की युक्तियों से वर्णन किया गया है | भक्ति
और ज्ञान का विषय भी प्रसंगवश आ गया है, जैसे अ० ५
श्लोक १३ से २६ तक ज्ञान और अ० ४ श्लोक ६ से ११ तक भक्ति | शेष
छठे अध्याय में ध्यानयोग का प्रतिपादन किया गया है | दूसरे शब्दों
में हम इसे मन के
संयम का विषय कह सकते हैं |
इसलिये
इसका नाम आत्मसंयम योग रखा गया |
अध्याय ७ से १२ तक तत्त्व और प्रभाव के सहित भगवान की भक्ति का रहस्य अनेक प्रकार
की युक्तियों द्वारा समझाया गया है | इसी से
भक्ति के साथ
भगवान ने ज्ञान-विज्ञान आदि शब्दों का प्रयोग किया है | इन
छ: अध्यायों के षट्क को भक्तियोग या उपासना-काण्ड पद दे दिया जा सकता है | अध्याय
१३ और १४ में तो मुख्यता ज्ञान-योग का ही प्रतिपादन किया गया है | १५वें
अध्याय में भगवान
के रहस्य और प्रभाव सहित भक्तियोग का वर्णन है | १६वें
अध्याय में दैवी और असुरी सम्पदावाले पुरुष के लक्षण अर्थात् श्रेष्ठ और नीच पुरुषों
के आचरण का उल्लेख किया गया है | इसके द्वारा मनुष्य को विधि-निषेध
का बोध होता है,
अत:
इसे ज्ञानयोग प्रतिपादक किसी अंश में मान लेने में कोई आपत्ति नहीं है |१७वें
अध्याय में श्रद्धा का तत्व समझाने के लिये प्राय: निष्काम-कर्मयोग–बुद्धि
से यज्ञ,
दान
और तपादि कर्मों का विभाग किया गया है, अतः इसे
निष्काम-कर्मयोग-विषय का ही अध्याय समझना चाहिये | १८वें में
उपसंहार-रूप से भगवान् ने सभी विषयों का वर्णन किया है | जैसे
श्लोक १ से १२ और ४१ से ४८ तक कर्मयोग, १३ से ४०
और ४९ से ५५ तक ज्ञानयोग तथा ५६ से ६६ तक कर्मसहित भक्तियोग |.....शेष
अगले ब्लॉग में
नारायण ! नारायण !! नारायण
!!! नारायण !!! नारायण !!!
जयदयाल गोयन्दका, तत्व-चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर