※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 23 दिसंबर 2012

*कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् * गीताजयंती की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाये |


!! ॐ श्री परमात्मने नमः !!

* श्रीमद्भगवद्गीता का प्रभाव *


गत ब्लॉग से आगे.....

गीता का विषय-विभाग

       गीता का विषय बड़ा ही गहन और और रहस्यपूर्ण है | साधारण पुरुषों की तो बात ही क्या, इसमें बड़े बड़े विद्वान भी मोहित हो जाते हैं | कोई-कोई तो अपने आशय के अनुसार ही इसका अर्थ कर लेते हैं | उन्हें अपने मत के अनुसार इसमें मसाला भी मिल जाता है | क्योंकि इसमें कर्म, उपासना, ज्ञान सभी विषयों का समावेश है और जहाँ जिस विषय का वर्णन आया है वहाँ उसकी भगवान ने वास्तविक प्रशंसा की है | अत: अपने-अपने मत को पुष्ट करने के लिये इसमें सभी विद्वानों को अपने अनुकूल सामग्री मिल जाती है इसलिए ये अपने सिद्धांत के अनुसार मोम के नाक की तरह खींचातानी करके इसे अपने मत की ओर ले जाते है | जो अद्वैतवादी (एक ब्रह्म को मानने वाले ) हैं, वे गीता के प्रायः सभी श्लोकों को अभेद की तरफ, द्वैतवादी द्वैत की तरफ और कर्मयोगी कर्म की तरफ ही ले जाने की चेष्टा करते हैं अर्थात् ज्ञानियों को यह गीताशास्त्र ज्ञान का, भक्तों को भक्तियोग का और कर्मयोगियों को कर्म का प्रतिपादक प्रतीत होता है | भगवान् ने  बड़ी गंभीरता के साथ अर्जुन के प्रति इस रहस्यमय ग्रन्थ का उपदेश किया, जिसे देखकर प्राय: सभी संसार के मनुष्य इसे अपनाते और अपनी ओर खींचते हुए कहते हैं कि हमारे विषय का प्रतिपादन इसमें किया गया है | परन्तु भगवान् ने द्वैत, अद्वैत या  विशिष्टाद्वैत आदि किसी वाद को या किसी धर्म-सम्प्रदाय जाति अथवा देश-विशेष को लक्ष्य में रखकर इसकी रचना नहीं की | इसमें न तो किसी धर्म की निंदा और न किसी की पुष्टि ही की गयी है | यह एक स्वतंत्र ग्रन्थ है और भगवान द्वारा कथित होने से इसे स्वत: प्रमाणिक मानना चाहिए | इसे दूसरे शास्त्रों के प्रमाणों की आवश्यकता नहीं है यह तो स्वयं दूसरे के लिए प्रमाण-स्वरुप है | अस्तु !

     कोई-कोई आचार्य कहते है कि इसके प्रथम छ: अध्यायों में कर्म का, द्वितीय षट्क में उपासना का और तृतीयमें ज्ञान का विषय वर्णित है | उनका यह कथन किसी अंश में माना जा सकता है, पर वास्तव में ध्यानपूर्वक देखने से पता लग सकेगा कि द्वितीय से अठारहवें अध्याय तक सभी अध्यायों में न्यूनाधिकरूप में कर्म, उपासना और ज्ञान-विषय का प्रतिपादन किया गया है | अत: गंभीर विचार के बाद इसका विभाग इस प्रकार किया जाना उचित है -.........शेष अगले ब्लॉग में


नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

जयदयाल गोयन्दका, तत्व-चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर