※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 20 दिसंबर 2011




संतोंकी दया


उन महात्माओंमें कठोरता, वैर और द्वेषका तो नाम ही नहीं रहता! वे इतने दयालु होते हैं कि दुसरेके दुःखको देखकर उनका ह्रदय पिघल जाता है! वे दुसरेके हितको ही अपना हित समझते हैं!  उन पुरुषोंमें विशुद्ध दया होती है ! जो दया कायरता, ममता, लज्जा, स्वार्थ और भय आदिके कारण कि जाती है, वह शुद्ध नहीं है ! जैसे भगवानकी अहैतुकि दया समस्त जीवोंपर है -- इसी प्रकार महापुरुषोंकी अहैतुकी दया सबपर होती है! उनकी कोई कितनी ही बुराई क्यों न करे, बदला     लेनेकी इच्छा तो उनके ह्रदयमें होती ही नहीं ! कहीं बदला लेनेकी-सी क्रिया देखी जाती है, तो वह भी उसके दुर्गुणोंको हटाकर उसे विशुद्ध करनेके लिये ही होती है ! इस क्रियामें भी उनकी दया छिपी रहती है -- जैसे माता-पिता, गुरुजन बच्चेके सुधारके लिये स्नेहपूर्ण हृदयसे उसे दण्ड देते हैं --इसी प्रकार संतोंमें भी कभी-कभी ऐसी क्रिया होती है, परन्तु इसमें भी परम हित भरा रहता है! वे संत करूणाके भण्डार होते हैं ! जो कोई उनके समीप जाता है, वह मानो दयाके सागरमें गोते लगता है ! उन पुरुषोंके दर्शन, भाषण, स्पर्श और चिन्तनमें भी मनुष्य उनके दयाभावको देखकर मुग्ध  हो जाता है! वे जिस मार्गसे निकलते हैं, मेघकी-ज्यों दयाकी वर्षा करते हुए ही निकलते हैं !मेघ सब समय और सब जगह नहीं बरसता, परन्तु संत तो सदा - सर्वदा सर्वत्र बरसते ही रहते हैं! 

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011


पौष कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार 




संतकी विशेषता 


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भाव यह है कि भक्त न होते तो भगवानकी गुणगरिमा और महत्त्व-प्रभुत्वका विस्तार जगतमें कौन करता ? इसलिये भक्त भगवानसे ऊँचे हैं! दूसरी बात यह है कि जैसे सुगन्ध चन्दनमें ही है, परन्तु यदि वायु उस सुगन्धको वहन करके अन्य वृक्षोंतक नहीं ले जाता तो चन्दनमें ही रहती, नीम आदि वृक्ष कदापि चन्दन नहीं बनते! इसी प्रकार भक्तगण यदि भगवानकी महिमाका विस्तार नहीं करते तो दुर्गुणी, दुराचारी मनुष्य भगवानके गुण और प्रेमको पाकर सद्गुणी, सदाचारी नहीं बनते! 


इसलिये भी संतोंका दर्जा भगवानसे बढ़कर है! वे संत जगतके सारे जीवोमें समता, शान्ति, प्रेम, ज्ञान और आनन्दका विस्तार कर सबको भगवानके सदृश बना देना चाहते हैं ! 

बुधवार, 14 दिसंबर 2011


पौष कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, बुधवार


संतकी विशेषता 


दयासागर भगवान् की दयाके तत्त्व और रहस्यको यथार्थ जाननेवाला पुरुष भी दयाका समुद्र और सब भूतोंका सुह्द् बन जाता है, भगवान् ने कहा है -- 


' सुह्दं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छ्ती !!'(गीता ५/२९) 


इस कथनका रहस्य यही है कि दयामय भगवान् को सब भूतोंका सुह्द् समझनेवाला पुरुष उस दयासागरके शरण होकर निर्भय हो जाता है तथा परमशान्ति और परमानन्दको प्राप्त होकर स्वयं दयामय बन जाता है ! इसलिये भगवान् ठीक ही कहते हैं कि मुझको सबका सुह्द् समझनेवाला शान्तिको प्राप्त हो जाता है, ऐसे भगवत्प्राप्त पुरुष ही वास्तवमें संत पदके योग्य हैं! ऐसे संतोंको कोई-कोई तो विनोदमें भगवान् से बढ़कर बता दिया करते हैं ! तुलसीदासजी महाराज कहते हैं--- 

मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा ! राम ते अधिक राम कर दासा !! 
राम सिंधु घन सज्जन धीरा ! चंदन तरु हरि संत समीरा !! 


'भगवान् समुद्र हैं तो संत मेघ हैं, भगवान् चन्दन हैं तो संत समीर (पवन ) हैं ! इस हेतुसे मेरे मनमें ऐसा विश्वास होता है कि रामके दास रामसे बढ़कर हैं !' दोनों दृष्टान्तोंपर ध्यान दीजिये! समुद्र जलसे परिपूर्ण है, परन्तु वह जल किसी काममें नहीं आता! न कोई उसे पिता है और न उससे खेती ही होती है! परन्तु बादल जब उसी समुद्रसे जलको उठाकर यथायोग्य बरसते हैं तो केवल मोर, पपीहा और किसान ही नहीं-- सारे जगतमें आनंद कि लहर बह जाती है ! इसी प्रकार परमात्मा सच्चिदानंदघन सब जगह विधमान हैं, परन्तु जबतक परमात्माके तत्त्वको जाननेवाले भक्तजन उनके प्रभावका सब जगह विस्तार नहीं करते, तबतक जगतके लोग परमात्माको नहीं जान सकते! जब महात्मा संत पुरुष सर्वसद्गुणसागर परमात्मासे समता, शान्ति, प्रेम, ज्ञान और आनंद आदि गुण लेकर बादलोंकी भाँति संसारमें उन्हें बरसाते हैं, तब जिज्ञासु साधकरूप मोर, पपीहा, किसान ही नहीं, किन्तु सारे जगतके लोग उससे लाभ उठाते हैं ! 

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011




संत- महिमा 


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बच्चा कभी अभिमानवश यह सोचता है की मैं अपने ही पुरषार्थसे चढ़ता हूँ, तब माता कुछ दूर हटकर कहती है, 'अच्छा चढ़ '! परंतु सहारा न पानेसे वह चढ़ नहीं सकता ! गिरने लगता है और रोता है, तब माता दौड़कर उसे बचाती है! इसी प्रकार अपने प्रयत्नका अभिमान करनेवाला भी   गिर  सकता है, परन्तु यह ध्यान रहे, भगवान् की कृपाका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि मनुष्य सब कुछ छोड़कर हाथ-पर-हाथ धरकर बैठ जाय, कुछ भी न करे! ऐसा मानना तो प्रभुकी कृपाका दुरूपयोग करना है ! जब माता बच्चेको ऊपर चढ़ाती है, तब सारा कार्य माता ही करती है,परन्तु बच्चेको माताके आज्ञानुसार चेष्टा तो करनी ही पड़ती है ! जो बच्चा माँके इच्छानुसार चेष्टा नहीं करता या उससे विपरीत करता है, उसको माता उसके हितार्थ डरती-धमकाती है तथा कभी-कभी मारती भी है! 


इस मारमें भी माँके ह्रदयका प्यार भरा रहता है, यह भी उसकी परम दयालुता है! इसी प्रकार भगवान् भी दयापरवश होकर समय -समयपर हमको चेतावनी देते हैं! मतलब यह कि जैसे बच्चा अपनेको और अपनी सारी क्रियाओंको माताके प्रति सौंपकर मातृपरायण होता है, इसी प्रकार हमें भी अपने-आपको और अपनी सारी क्रियाओंको परमात्माके हाथोंमें सौंपकर उनके चरणोंमें पड़ जाना चाहिये! इस प्रकार बच्चेकि तरह परम श्रद्धा और विश्वासके साथ जो अपने-आपको परमात्माकी गोदमें सौंप देता है, वही पुरुष परमात्माकी कृपाका इच्छुक और पात्र समझा जाता है और इसके फलस्वरूप वह परमात्माकी दयासे परमात्माको प्राप्त हो जाता है ! सारांश यह कि परमात्माकी प्राप्ति परमात्माकी दयासे ही होती है; दया ही एकमात्र  कारण  है ! परन्तु यह दया मनुष्यको अकर्मण्य नहीं बना देती ! परमात्माकी दयासे ही ऐसा परम पुरषार्थ बनता है! जीवका अपना कोई पुरषार्थ नहीं,वह तो निमित्तमात्र होता है ! 




सोमवार, 12 दिसंबर 2011




संत-महिमा


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लड़का निचेके तल्लेसे उपरके तल्लेपर जब चढ़ना चाहता है तो माता उसे सीढियोंके पास ले जाकर चड़नेके लिये उत्साहित करती है! कहती है ---'बेटा ! चढ़ो, गिरोगे नहीं, मैं साथ हूँ न? लो, मैं हाथ पकडती हूँ!' यों साहस और आश्वासन देकर उसे एक-एक सीढ़ी चढ़ाती है, पूरा ख़याल रखती है, कहीं गिर न जाय; जरा-सा भी डिगता है तो तुरंत हाथका सहारा देकर थाम लेती और चढ़ा देती है; बच्चा जब चढ़नेमें कठिनाईका अनुभव करता है तब माँकी और ताककर मानो इशारेसे माँकी मदद चाहता है ! माँ उसू क्षण उसे अवलम्बन देकर चढ़ा देती है और पुनः उत्साह दिलाती है! बच्चा कहीं फिसल जाता है तो माँ तुरंत उसे गोदमें उठा लेती है, गिरने नहीं देती ! इसी प्रकार जो पुरुष बच्चेकी भाँति भगवान् पर भरोसा (निर्भर ) करता है, भगवान् उसकी उन्नति और रक्षाकी व्यवस्था स्वयं करते हैं, उसे तो केवल निमित्त बनाते हैं! सांसारिक माता तो कदाचित् असावधानी और सामर्थ्यके अभावसे या भ्रमसे गिरते हुए बच्चेको न भी बचा सके परन्तु वे सर्वशक्तिमान्, सर्वान्तर्यामी, परमदयालु, सर्वज्ञ प्रभु तो अपने आश्रितको कभी गिरने देते ही नहीं! वरन् उतरोत्तर उसे सहायता देते हुए, एक-एक सीढ़ी चढाते हुए सबसे ऊपरके तल्लेपर, जहाँ पहुँचना ही जीवका अन्तिम ध्येय है, पहुँचा ही देते हैं ! इससे यह सिद्ध हो जाता है कि प्रयत्न भगवान् ही करते हैं, भक्तको तो केवल इच्छा करनी पड़ती है और उसीसे भगवान् उसे निमित्त बना देते हैं ! 

रविवार, 11 दिसंबर 2011




संत -महिमा 


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माता अपने बच्चेके लिये जो कुछ भी करती है, उसकी प्रत्येक क्रियामें दया भरी रहती है! इस बात का बच्चे को भी कुछ -कुछ अनुभव रहता है! जब बच्चा शरारत करता है तो उसके दोषनिवारणार्थ माँ उसे धमकाती-मारती है और उसको अकेला छोड़कर कुछ दूर हट जाती है! ऐसी अवस्थामें भी बच्चा माताके ही पास जाना चाहता है! दुसरे लोग उससे पूछते हैं-' तुम्हें किसने मारा? ' वह रोता हुआ कहता है-- माँने !' इसपर वे कहते हैं - 'तो आइन्दा उसके पास नहीं जाना !' परंतु वह उनकी बातपर ध्यान न देकर रोता है और माता के पास ही जाना चाहता है! उसे भय दिखलाया जाता है कि 'माँ तुझे फिर मारेगी!' पर इस बातका उसपर कोई असर नहीं होता, वह किसी भी बातकी परवा न करके अपने सरल भावसे माताके ही पास जाना चाहता है! रोता है, परंतु चाहता है माताको ही! जब माता उसे ह्रदयसे लगाकर उसके आँसू पोंछती है, आश्वासन देती है, तभी वह शान्त होता है ! इस प्रकार माताकी दयापर विश्वास करनेवाले बच्चेकी भाँति जो भगवान् के दया- तत्त्वको जान लेता है और भगवान् की मारपर भी भगवान् को ही पुकारता है, भगवान् उसे अपने हृदयसे लगा लेते हैं ! फिर जो भगवान् की कृपाको विशेषरूपसे जान लेता है, उसकी तो बात ही क्या   है?  

शनिवार, 10 दिसंबर 2011




संत महिमा 


सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते !
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्वतं मम !! (वा रा ६/१८/३३ )


'जो एक बार भी मेरे शरण होकर कहता है, मैं तुम्हारा हूँ, (तुम मुझे अपना लो ) मैं उसे सब भुतोंसे अभय कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है!' इसपर भी मनुष्य उनके शरण होकर अपना कल्याण नहीं करता, यह बड़े आश्चर्य-की बात है !


दयासागर भगवान् की जीवोंपर इतनी अपार दया है कि जिसकी कोई सीमा नहीं ! वस्तुतः उन्हें दयासागर कहना भी उनकी स्तुतिके व्याजसे निन्दा ही करना है ! क्योंकि सागर तो सिमावाला है, परन्तु भगवान् कि दयाकी तो कोई सीमा ही नहीं है! अच्छे-अच्छे पुरुष भी भगवान् की दयाकी जितनी कल्पना करते हैं,वह उससे भी बहुत ही बढ़कर है! उसकी कोई कल्पना ही नहीं की जा सकती ! कोई ऐसा उदहारण नहीं जिसके द्वारा भगवान् की दयाका स्वरूप समझाया जा सके! माताका उदहारण दें तो वह भी उपयुक्त नहीं है! कारण, दुनियांमें असंख्य जीव हैं और उन सबकी उत्पत्ति माताओंसे ही होती है, उन साड़ी मातओंके हृदयमें अपने पुत्रोंपर जो दया या स्नेह है, वह सब मिलकर भी उन दयासागरकी दयाके एक बूँदके बराबर भी नहीं है ! ऐसी हालतमें और किससे तुलना की जाय? तो भी माताका उदहारण इसलिये दिया जाता है कि लोकमें जितने उदहारण हैं, उन सबमें इसकी विशेषता है ! ....

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011




संत-महिमा 


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श्रुति कहती है --


         उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत !  
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया 
         दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति !! (कठ १/३/१४)


'उठो, जागो और महान् पुरुषोंके समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करो! जिस प्रकार छुरेकी धार तीक्ष्ण और दुस्तर होती है, तत्त्वज्ञानी लोग उस पथको भी वैसा ही दुर्गम बतलाते हैं! '


भगवत्प्राप्तिमें केवल अपना पुरषार्थ माननेका कारण -- अहंकाररुपी दोष है! भक्तके  इस अहंकार-दोषको नष्ट करनेके लिये भगवान् उसे भीषण संकटमें डालकर यह  बात प्रत्येक्ष दिखला देते हैं कि कर्यसिद्धिमें अपनी सामर्थ्य मानना मनुष्यकि एक बड़ी गलती है ! इस प्रकार अहंकारनाशके लिये जो विपत्तिमें डालना है, यह भी भगवान् की विशेष कृपा है ! केनोपनिषद् में एक कथा है-- इन्द्र, अग्नि, वायु देवोंने विजयमें अपने पुरषार्थको कारण समझा, इसलिये उन्हें गर्व हो गया! तब भगवान् ने उनपर कृपा करके यक्षके रूपमें अपना परिचय दिया और उनके गर्वका नाश किया ! जब अग्नि, वायु देवता परास्त हो गये और यह समझ गये कि हमारे अन्दर वस्तुतः कुछ भी सामर्थ्य नहीं है, तब भगवान् ने विशेष दया करके उमाके द्वारा इन्द्रको अपना यथार्थ परिचय दिया ! सफलतामें अपना पुरषार्थ मानकर मनुष्य गर्व करता है, परन्तु अनिवार्य विपत्तिमें जब वह अपने पुरुषार्थसे निराश हो जाता है तब निरूपाय होकर भगवान् के शरण जाता है और आर्त होकर पुकार उठता है -- ' नाथ ! मुझे इस घोर संकटसे बचाइये ! मैं  सर्वथा असमर्थ हूँ ! मैं जो अपने बलसे अपना उद्धार मानता था, वह मेरी भारी भूल थी! राग-द्वेष और काम-क्रोधादि शत्रुओंके दबानेसे अब मुझे इस बातका पूरा पता लग गया कि आपकी कृपाके बिना मेरे लिये इनसे छुटकारा पाना कठिन ही नहीं, वरं असम्भव-सा है ! जब अहंकारको छोड़कर इस तरह सरल भावसे और सच्चे हृदयसे मनुष्य भगवान् के शरण हो जाता है तब भगवान् उसे अपना लेते हैं और आश्वासन देते हैं, क्योंकि भगवान् की यह घोषणा है -- 


सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते !
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्वतं मम !! (वा रा ६/१८/३३ )


गुरुवार, 8 दिसंबर 2011




संत-महिमा 


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अर्जुनसे भगवान् ने कहा --' ये सब मेरे द्वारा मारे हुए हैं तू तो केवल निमित्तमात्र बन जा ! ' (गीता ११/३३) इसी प्रकार अपनी प्राप्तिरूप कार्यकी सिद्धिमें भी सब  कुछ भगवान्  ही कर लेते हैं ! इच्छा करनेवाले भक्तको केवल निमित्तमात्र बनाते हैं ! जो लोग भाग्वत्प्राप्तिको केवल अपने पुरुषार्थसे सिद्ध होनेवाली मानते हैं, उनको भगवान् प्रत्यक्ष  दर्शन नहीं देते! हाँ, उन्हें बड़ी कठिनाईसे  ज्ञानकी प्राप्ति हो सकती है, परंतू उसमे  भी गुरुकी शरण ग्रहण तो करनी ही पड़ती है ! भगवान् स्वयं कहते हैं--- 


तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया !
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानीनस्तत्त्वदर्शिनः !! (गीता ४/३४)


'उस ज्ञानको तू समझ; क्षोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आचार्यके पास जाकर उनको भलीभाँति दण्डवत्-प्रणाम  करनेसे, उनकी सेवा करनेसे और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे परमात्मतत्त्वको भलीभाँति जाननेवाले वे ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश करेंगे !'  

बुधवार, 7 दिसंबर 2011





संत-महिमा 


गत ब्लॉग से आगे ....

जड़ धन हमारी चाहके बदलेमें वैसी चाह नहीं कर सकता, परन्तु भगवान् तो, जो उनको चाहता है, उसको स्वयं चाहते  हैं, और यह  निश्चित सत्य है कि भगवान् कि चाह कभी निष्फल नहीं होती, वह अमोघ होती है! अतएव भगवान् की चाहसे बिना ही प्रयत्न किये भक्तिकी चाह अपने-आप पूर्ण हो जाती है! पर इतना स्मरण रखना चाहिये कि भक्तके चाहनेपर ही भगवान् उसे चाहते हैं ! यदि यह कहें कि भक्तके बिना चाहे भगवान् क्यों नहीं चाहते ? तो इसका उत्तर यह है कि भगवान् में वस्तुतः 'चाह' है ही नहीं, भक्तकि चाह्से ही उनमें चाह पैदा होती है! इसपर यह शंका है कि जब भक्तकी चाह्से भगवान् में चाह होकर भगवान् मिलते हैं तब  केवल भाग्व्त्कृपाकी प्रधानता कहाँ रही?  चाह भी तो एक प्रयत्न ही है ? इसपर उत्तर यह है कि भगवान् को प्राप्त करनेकी इच्छामात्रको प्रयत्न नहीं कहा जा सकता और यदि इसीको प्रयत्न मानें तो इतना प्रयत्न तो अवश्य ही करना पड़ता है ! परंतु ध्यान देकर देखनेसे मालूम होगा कि इच्छा करनेमात्रसे प्राप्त होनेवाले एक श्रीभगवान् ही हैं! दुनियामें लोग नाना प्रकारके पदार्थोंकी इच्छा करते हैं; परंतु इच्छा करनेसे ही उन्हें कुछ नहीं मिलता ! इच्छा हो, प्रारब्धका संयोग हो और फिर प्रयत्न हो तब भौतिक पदार्थ मिलता है! पर भगवान् के लिये तो इच्छा-मात्रसे ही काम हो जाता है ! इच्छा करनेपर जो प्रयत्न होता है वह प्रयत्न तो भगवान् स्वयं करा लेते हैं! साधक तो केवल निमित्तमात्र बनता है ! 

मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

ग्रंथराज गीता जयंती के पावन दिवस पर आप सभी को जयश्रीकृष्ण




    • ॥ श्रीहरिः॥

o    *   * गीताजी की आज्ञा भगवानकी आज्ञा समझनी चाहिए।

* मेरी दृष्टिमेँ गीतासे बढ़कर संसारमेँ और कोई शास्त्र है ही नहीँ, गीता वेदसे भी बढ़कर है।


*गीता भगवानकी साक्षात वाङ्गमयी मूर्ति है ।

*गीता भगवानके साक्षात श्वास है ।

*गीताजीका अर्थसहित, भावसहित अवश्य ही मनन करना चाहिए।

*गीता हमलोगोँको त्याग सिखलाती है-आसक्तिका त्याग, अहंताका त्याग, ममताका त्याग ।

*जिस तरह भगवानका सबमेँ प्रवेश है यानी भगवान व्यापक हैँ,उसी तरह अपने लोगोँका गीतामेँ प्रवेश होना चाहिए यानी हमारे रोम-रोममेँ गीता होनी चाहिए।

*कल्याण तो इनमेँसे किसी एक ही बातसे हो जाय-

(क) गीताजीमेँ प्रवेश हो जाय,बस इतनेमेँ ही मामला समाप्त है ।
(ख) सबको नारायणका स्वरुप समझकर सेवा करे,इतनेमेँ ही कल्याण हो      जायगा।
(ग) गीताजीका एक ही श्लोक धारण कर ले,इतनेमेँ ही काम बन जायगा ।

*गीताका ज्ञान ,गोविँद का ध्यान गंगा का स्नान गौका दान गायत्रीका गान-ये पाँचो बहुत उत्तम हैँ सभी कल्याण करनेवाली है।

*गीता के अनुसार अपना जीवन बनाना चाहिए।

*गीताका प्रचार लोगोँ मेँ करना चाहिए।भगवानकी भक्तिका प्रचार करना,लोगोँको भक्तिमार्गमेँ लगाना इससे बढ़कर कोई काम नहीँ है।

*गीता-प्रचारको सभी बातोँसे ऊँची समझकर भगवान कहते हैँ-

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भूवि॥(गीता 18.69)

उससे (गीता प्रचारकसे) बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्योँमेँ कोई भी नहीँ है;तथा पृथ्वीभरमेँ उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्यमेँ होगा भी नहीँ।

*गीताका जो प्रचार करते हैँ तथा जो लोगोँको इसमेँ लगाते हैँ,उनसे बढ़कर संसारमेँ कोई भी नहीँ है।

*गीता-प्रचार करनेवाले लोगोँसे बढ़कर मेरा प्यारा कोई नहीँ है।

*गीताकी पुस्तकको खूब आदर देना चाहिए।
*गीताको भगवान से भी बढ़कर बतावेँ तो भगवान नाराज नहीँ होँगे।

*गीतामेँ स्नान करनेवाला संसारका उद्धार कर सकता है,गीता गायत्रीसे भी बढ़कर है।

*गीता सुनते हुए मरनेवाला पाठ करनेवाला अर्थसहित पाठ करनेवाला अर्थ समझनेवाला धारण करनेवाला-ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैँ।

*गीता निष्पक्ष ग्रंथ है।वाममार्गकी भी गीता निँदा नहीँ करती।
*सारे शास्त्र दब जायँगे तो गीता जीती-जागती रह जायगी।

*गीताके प्रचारके लिए तो हमेँ सेनाकी तरह तैयार हो जाना चाहिए।


·          *गीता का पाठ सुननेवाला भी मुक्त हो जाता है।
o     
*गली-गलीमेँ गीता-ही-गीता हो जाय,ऐसा कोई भी घर बाकी नहीँ रहने दे जिस घर मेँ गीता न हो।जिस घरमेँ गीता नहीँ, वह घर श्मशान के समान है।

*जिस घर मेँ गीता का पाठ नहीँ हो, वह यमपुरी के समान है।


*क्रिया, कण्ठ वाणी तथा हृदयमेँ गीता धारण करनी चाहिए।
*गीता कंठस्थ कर लेँ हृदय मेँ धारण कर ले गीता के सिद्धांत और उसके भाव एक हैँ।

*एक गीताके द्वारा हजारोँ-लाखोँ-करोड़ोँका कल्याण हो सकता है,इसकी बड़ी विलक्षणता है।

*गीतारुपी वृक्ष को सीँचो, यह संसारको काटता है।

*सबके हृदय कंठमेँ गीता बसा देवेँ।

*मेरा जीवन प्राण-सबकुछ गीता है।एक तरफ सब धन एक तरफ गीता होनेपर भी सांसारिक धनसे गीताकी तुलना नहीँ की जा सकती।

*गीता की स्तुति इस प्रकार गावेँ-

त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देवदेव॥

गीता पोषण करती है इसलिए माता है । गीता रक्षा करती है इसलिए पिता है।भाई तो धोखा दे सकता है गीता धोखा नहीँ देती। मौकेपर सखा भी साथ छोड़ देते हैँ,पर गीता नहीँ छोड़ती। यही असली विद्या है जिसके पास गीता धन है उसके पास सबकुछ है।

*गीता भगवानका हृदय वाणी श्वास आदेश सबकुछ है।

*हमारा सर्वस्व गीता है। सारा धन भले ही चला जाय गीता हमारे पास रह जाय।

*गीताजी मेँ एक-एक साधन की अंतिम सीमातक का साधन लिखा है।

*मेरे तो भगवद्गीता ही आधार है।

*परमात्माके नामका जप गीताके अभ्यास से प्रत्यक्ष लाभ होता है,इससे बढ़कर संसारमेँ कोई नहीँ है।सत्संग अच्छे पुरुषोँका संग इसकी जड़ है,परमात्माका ध्यान इसका फल है।

*प्रथम तो गीताका प्रचार अपनी आत्मामेँ करना चाहिए। पहले सिपाही बनकर कवायद सीखेँगे तभी तो कमांडर बनकर सिखायेँगे। आप जितनी मदद चाहेँ उतनी मिल सकती है। एक ही व्यक्ति स्वामी शंकराचार्यजीने कितना प्रचार किया,भगवान की शक्ति थी।
*हरेक प्रकारसे गीताका प्रचार करना चाहिए।भगवानकी भक्तिके सभी अधिकारी हैँ।गीता बालक, स्त्री, वृद्ध, युवा-सभीके लिए है।
·          
*सार यही है कि भगवानके कामके लिए कटिबद्ध होकर लग जाना चाहिए।स्वधर्मे निधनं श्रेयः अपने धर्म-पालनमेँ मरना भी पड़े तो कल्याण है। बंदरोँने भगवानका काम किया, उनमेँ क्या बुद्धि थी।गीताका प्रचार भगवानका ही काम है।निमित्त कोई भी बन जाय,भगवानकी शक्तिको मत भूलो 'तव प्रताप बल नाथ' मान-बड़ाई-प्रतिष्ठाके ठोकर मारकर काम करो,फिर देखो भगवान पीछे-पीछे फिरते हैँ,सारा काम स्वयं ही करते हैँ,तैयार होकर करो,डरो मत,विश्वास रखो।




*गीताका आदरपूर्वक पाठ करो। गीताका आदर आप करेँगे तो गीता आपका आदर करेगी।


*गीताके एक श्लोक और एक ही चरणको धारण कर ले तो उद्धार हो जानेपर सारी गीताको भी इसलिए याद करे कि भगवानका प्रिय बनना है, क्योँकि यह भगवानका सिद्धांत है, भगवान का हृदय है।गीताकी जितनी महिमा गायी जाय उतनी थोड़ी है।हमेँ जितना समय मिले उसमेँ लगावेँ और उसे हृदयमेँ धारण करके क्रियामेँ लायेँ।

*मरनेके समय गीताके श्लोकका उच्चारण करता हुआ मरे या भाव समझता हुआ मरे तो भी कल्याण हो जाता है।

*शास्त्रोँमेँ तो यहाँतक आया है कि मरते समय गीताकी पुस्तक मनुष्यके ऊपर मस्तकपर या सिरहाने रख दे तो भी कल्याण हो जाता है,फिर हृदयमेँ धारण करे तब तो बात ही क्या है?
*जैसे हनुमानजी महाराजने राम-नामको रोम-रोममेँ रमा लिया था,इसी तरह गीताको रोम-रोममेँ भरे,रोम-रोममेँ रमा लेवे।

*गीताका असली प्रचार तो यह है कि अपने आचरणसे वैसे करके दूसरेको प्रेमसे समझा दे।गीताकी एक भी बात किसीको पकड़ा दे तो यह गीताका असली प्रचार है।जीवन बना दे,अर्थको समझाकर तात्पर्य बतला दे धारण करा दे।

*गीताके श्लोक मंत्र हैँ।गीता मेँ एक एक बात तौल तौलकर रखी है,गीताको पाँचवाँ वेद भी मानो तो कोई अतिश्योक्ति नहीँ है।

- श्री जयदयाल गोयन्दका सेठजी   (अमृत वचन पुस्तक से )

                              गीता- जयन्ती 




संत - महिमा 


( गत ब्लॉग से आगे )


इसपर यह शंका होती है कि जब परमात्माकी कृपा सभिपर है, तब सभीको परमात्माकी प्राप्ति हो जानी चाहिये; परंतु ऐसा क्यों नहीं होता ? इसका उत्तर यह है कि यदि परमात्माकी प्राप्तिकी तीव्र चाह हो और भगवत्कृपामें विश्ववास हो तो सभीको प्राप्ति हो सकती है ! परंतु परमात्माकी प्राप्ति चाहते ही कितने मनुष्य हैं, तथा परमात्माकी कृपापर विश्वास ही कितनोंको है? जो चाहते हैं और जिनका विश्वास है उन्हें प्राप्ति होती ही है ! यदि यह कहा जाय  कि  परमात्माकी प्राप्ति तो सभी चाहते हैं, तो यह ठीक नहीं है; ऐसी चाह वास्तविक चाह नहीं है! हम देखते हैं जिसको धनकी चाह होती है, वह धनके लिये सब कुछ करने तथा इतर सबका त्याग करनेको तैयार हो जाता है, इसी प्रकारकी भागवतप्राप्तिकी तीव्र चाह कितनोंको है ? धन तो चाहनेपर भी प्रारब्धमें होता है तभी मिलता है, प्रारब्धमें नहीं होता तो नहीं मिलता ! परंतु भगवान् तो चाहनेपर अवश्य मिल जाते हैं, क्योंकि भगवान् धनकी भाँति जड़ नहीं हैं !   

सोमवार, 5 दिसंबर 2011




संत-महिमा 


संतभावकी प्राप्ति भगवत्कृपासे होती है 


संसारमें संतोंका स्थान सबसे ऊंचा है ! देवता और मनुष्य, राजा और प्रजा --- सभी सच्चे संतोंको अपनेसे बढ़कर मानते हैं! संतका ही जीवन सार्थक होता है ! अतएव सभी लोगोंको संतभावकी प्रप्तिके लिये भगवान् के शरण होना चाहिये! यहाँ एक प्रश्न होता है कि 'संतभावकी प्राप्ति प्रय्त्नसे होती है या भगवत्कृपासे अथवा दोनोंसे? यदि यह कहा जाय कि वह केवल प्रयत्न-साध्य है तो सब लोग प्रयत्न करके संत क्यों नहीं बन जाते? यदि कहें कि भगवत्कृपासे होती है तो भगवत्कृपा सदा सबपर अपरिमित है ही, फिर सबको संतभावकी प्राप्ति क्यों नहीं हो जाती ? दोनोंसे कही जाय तो फिर भगवत्कृपाका महत्त्व ही क्या रह गया, क्योंकि दुसरे प्रयत्नोंके सहारे बिना केवल उससे भगवत्प्राप्ति हुई नहीं?इसका उत्तर यह है कि भगवत्प्राप्ति यानि संतभावकि प्राप्ति भगवत्कृपासे  ही होती है! वास्तवमें भगवत्प्राप्त पुरुषको ही संत कहा जाता है! 'सत' पदार्थ केवल परमात्मा है और परमात्माके यथार्थ तत्त्वको जो जानता है और उसे उपलब्द कर चूका है वही संत है ! हाँ, गौणी वृत्तिसे उन्हें भी संत कह सकते हैं जो भाग्वात्प्रप्तिके पात्र हैं, क्योंकि वे भाग्वात्प्रप्तिरूपी लक्ष्यके समीप पहुँच गये हैं और शीघ्र उन्हें भाग्वात्प्रप्तिकी सम्भावना है !