उत्तर- ठीक है । परंतु भगवानकी प्रबल शक्तिके सामने मायाकी कुछ भी शक्ति नहीँ है । जो मायाके वशमेँ हैँ, उन्हीँके लिए माया प्रबल है । परमात्माको और परमात्माके प्रभावको जाननेवालोँ के सामने मायाकी शक्ति कुछ भी नहीँ है । क्योँकि वास्तवमेँ मायाकी ऐसी शक्ति है ही नहीँ । मायाके वश मेँ पड़े हुए जीवोँने ही उसकी ऐसी शक्ति मान रखी है । जैसे तन्द्राकी अवस्थामेँ पड़ा हुआ मनुष्य छातीपर हाथ पड़ जानेसे चोर की कल्पना कर अपनी छातीपर बड़ा भारी बोझ-सा समझ लेता है और अपनेको इतना दबा हुआ मानता है कि उसे जबान हिलानेमेँ भी भय-सा मालूम होता है परंतु वास्तवमेँ वहाँ न चोर है और न उसका बोझ है । यही दशा माया की है । जीव जहाँतक चेत नहीँ करता, वहीँतक मायाकी प्रबल शक्ति मानकर वह उससे दबा रहता है । यदि चेतकर परमात्माकी शरण ले ले और उसका स्वरुप जान ले तो फिर मायाकी शक्ति कुछ भी न रहे । (गीता अ॰ ७।१४ एवं अ॰ १३।२५ मेँ देखना चाहिए।) जीव जो परमात्माका सनातन अंश है, अपनी शक्तिको भूल रहा है, इसीलिए उसको माया प्रबल प्रतीत होती है । यदि अपनी शक्ति जागृत कर ली जाय तो मायाकी शक्ति सहज ही मेँ परास्त हो जाय । माया मेँ अज्ञान हेतु है और अज्ञानके नाशसे ही माया का नाश है ।
[परमार्थ-पत्रावली]