पाँच महायज्ञ: ...... गत ब्लॉग से आगे ......
विशेषतः (अन्तकालमें) जो सोन नदीके उत्तर तटका आश्रय लेकर विधिपूर्वक प्राण-त्याग करता है, वह मेरी समानताको प्राप्त होता है! जिस मनुष्यकी मृत्यु घरके भीतर होती है, उस घरके छप्परमें जितनी गाँठें बँधी रहती हैं, उतने ही बंधन उसके शरीरमें भी बँध जाते हैं! एक-एक वर्षके बाद उसका एक-एक बंधन खुलता है! पुत्र और भाई-बंधू देखते रह जाते हैं, किसीके द्वारा उसे उस बंधनसे छुटकारा नहीं मिलता! पर्वत, जंगल, दुर्गमभूमि या जलरहित स्थानमें प्राण - त्याग करनेवाला मनुष्य दुर्गतिको प्राप्त होता है! उसे कीड़े आदिकी योनीमें जन्म लेना पड़ता है! जिस मरे हुए व्यक्तिके शवका दाह- संस्कार मृत्युके दुसरे दिन होता है, वह साठ हज़ार वर्षोंतक कुम्बीपाक नरकमें पड़ा रहता है! जो मनुष्य अस्पृश्यका स्पर्श करके या पतितावस्थामें प्राण त्याग करता है, वह चिरकालतक नरकमें निवास करके मलेच्छ-योनिमें जन्म लेता है! पुण्यसे अथवा पुण्यकर्मोंका अनुष्ठान करनेसे मर्त्यलोकनिवासी सब मनुष्योंकी मृत्युके समय जैसी बुद्धि होती है, वैसी ही गति उन्हें प्राप्त होती है!
पिताके मरनेपर जो बलवान पुत्र उनके शरीरको कन्धेपर ढोता है, उसे पग-पगपर अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है! पुत्रको चाहिये कि वह पिताके शवको चितापर रखकर विधिपूर्वक मंत्रोचारण करते हुए पहले उसके मुखमें आग दे, उसके बाद सम्पूर्ण शरीरका दाह करे! [उस समय इस प्रकार कहे --] 'जो लाभ-मोहसे युक्त तथा पाप-पुण्यसे आच्छादित थे, उन पिताजीके इस शवका, इसके सम्पूर्ण अंगोंका मैं दाह करता हूँ; वे दिव्यलोकमें जायँ! इस प्रकार दाह करके पुत्र अस्थि-संचयके लिए कुछ दिन प्रतीक्षामें व्यतीत करे फिर यथासमय अस्थि-संचय करके दशाह (दसवाँ दिन) आनेपर स्नानकर गीले वस्त्रका परित्याग कर दे, फिर विद्वान् पुरुष ग्यारहवें दिन एकादशह -श्राद्ध करे और प्रेतके शरीरकी पुष्टिके लिये एक ब्राह्मणको भोजन कराये!
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