※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 25 अप्रैल 2012




गीतामें भगवान् बताते है --


सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:।। (गीता ६/२९)


सर्वव्यापी अनन्त चेतनमें एकीभावसे स्थितिरूप योगसे युक्त आत्मावाला तथा सबमें समभावसे देखनेवाला योगी आत्माको सम्पूर्ण भूतोंमें स्थित और सम्पूर्ण भूतोंको आत्मामें कल्पित देखता है! 


जैसे अज्ञानी आदमी अपने शरीरमें आत्मभाव रखता है, ऐसे ही ज्ञानी महात्मा सम्पूर्ण ब्राह्माण्डमें अपनी आत्माको देखते हैं। जीवात्मा, परमात्माकी एकताका नाम है योग, उसमें जिसकी आत्मा जुडी हो उसका नाम है योगयुक्तात्मा। अथवा योगके द्वारा परमात्माके स्वरुपमें युक्त आत्मा है जिसकी, उसको योगयुक्तात्मा कहते हैं। 


प्रशान्तमनसं ह्योनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभुतकल्मषम् ।।  (गीता ६/२७)


जिसका मन शान्त है, जिसका रजोगुण शान्त हो गया है, जो पापसे रहित है ऐसा योगी उत्तम सुखको प्राप्त होता है । उत्तम सुख क्या है? परमात्माकी प्राप्ति। ब्रह्म सम होता है, इसलिये उस ब्रह्मभूत योगिकी समतामें स्थित है।

मंगलवार, 24 अप्रैल 2012


सम्पूर्ण दुखोंका अभाव कैसे हो? ...... गत ब्लॉग से आगे.... 


वैशाख शुक्ल अक्षयतृतीया, वि.सं.-२०६९, मंगलवार


ध्यायतो विषयान्पुंसः संग्स्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामत्क्रोधो भिजायते।। (गीता २/६२)


विषयोंका चिंतन करनेवाले पुरुषकी उन विषयोंमें आसक्ति हो जाती है, आसक्तिसे उन विषियोंकी कामना उत्पन्न होती है और कामनामें विघ्न पड़नेसे क्रोध उत्पन्न होता है! 


राग - आसक्तिके अभावका नाम वैराग्य है! संसारके सारे पदार्थ क्षणभंगुर, अनित्य हैं ऐसा समझकर जो विवेकपुर्वक वैराग्य  होता है वही असली वैराग्य  है।  यहाँ तो अपने -आप वैराग्य होता है! यहाँ वन, पहाड़, गंगा तीन चीजें ही दिखती हैं! वनको देखनेसे स्वाभाविक वैराग्य हो जाता है! गंगाके दर्शनसे, स्पर्शसे वैराग्य होता है! पहाड़ोंकी कन्दरा वैराग्य उत्पन्न करनेवाली है!


गंगाकी ध्वनि आ रही है, मानो वेदकी ध्वनि है! गंगाजीकी  वायु लगनेसे शरीर पवित्र हो जाता है! पवित्र गंध आती है,  उससे नासिका पवित्र होकर अन्तः कारन पवित्र हो जाता है उससे वैराग्य होता है! वैराग्य होनेके बाद फिर उपरति होती है! इन्द्रियोंकी वृत्तियाँ जो बाहरमें जा रही है उनका विषियों से सम्बन्ध विच्छेद कर देना यही बाहरके विषियोंका त्याग है। फिर स्फुरणासे रहित होकर उपरामताको प्राप्त हो जाता है, फिर परमात्माका ध्यान करो। यदि यह सारा संसार दिखने लगे तो यही समझना चाहिये अपनी आत्मा का ही संकल्प है! 

रविवार, 15 अप्रैल 2012


सम्पूर्ण दुखोंका अभाव कैसे हो? 




आज निराकारके ध्यानका प्रकरण है! ध्यानके लिये सबसे बढ़कर एकांत और पवित्र स्थानकी आवश्यकता है । ये भूमि तपोभूमि है, भगवती भागीरथीका किनारा होने से परम पवित्र है, वन है । धयानके स्थान मैं बिछाने के लिये भगवन नै बताया है -----


शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
नात्युच्छितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ।। (गीता ६/११)
    
शुद्ध भूमि मैं, जिसके ऊपर क्रमशः कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न बहुत ऊँचा है और न बहुत निचा, ऐसे अपने आसनको स्थिर स्थानपन करे।


उसकी जगह  गंगाजीकी रेणुका यहाँपर है, उसपर आसन लगाकर बैठना चाहिए । शारीरसे स्थिर एवं सुखपूर्वक बैठना चाहिए । भगवान् ने बताया है ---


समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
संपेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशच्श्रानव्लोकयन् ।। (गीता ६/१३)


काया, सिर और गलेको समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर, अपनी नासिका के अग्रभागपर दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओंको न देखता हुआ। 


देह, मस्तक, ग्रीवाको समान रखे, अचल रखे, निद्रा नहीं आये तौ नेत्र बन्द भी कर सकते हैं। 


फ़िर ह्रदयकी कमनाओंका त्याग कर देना चाहिये। मनसे यह पूछे तुम क्या चाहते हो तो यही आवाज निकले कुछ नहीं । इच्छा, कामनाका सर्वथा अभाव कर दे । किसीकी स्प्रहा आकांक्षा नहीं है । ये सब  रागसे उत्पन्न होते हैं  ----


ध्यायतो विषयान्पुंसः संग्स्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामत्क्रोधो भिजायते।। (गीता २/६२)



शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012


                                 !श्री हरिः!! 




भाक्तियोग, ज्ञानयोग, तथा कर्मयोग -- भगवत्प्राप्तिके ये तीन स्वतंत्र साधन माने गये हैं! मनुष्यमें तीन प्रकारकी शक्तियाँ भगवान् से प्राप्त हैं - श्रद्धा-विश्वास करनेकी, जाननेकी तथा करनेकी, इन तीन प्रकारकी शक्तियोंके आधारपर क्रमशः उपरोक्त तीन साधन हैं! गीताप्रेसके संस्थापक श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका विशेष पढ़े -लिखे व्यक्ति नहीं थे, परन्तु उन्होंने ज्ञानयोगका साधन सीढ़ी-दर सीढ़ी स्वंय किया था और तत्त्वकी प्राप्ति की! उन्हें निष्कामभावका आचार्य भी कहा जय तो अत्युक्ति नहीं होगी, उनके अणु-अणुमें निष्कामभाव था! उन्होंने स्वंय एक बात कही थी की भक्ति की प्राप्ति उन्हें भगवत्कृपासे हुई! भगवान् से जो वस्तु प्राप्त होती है वह पूरी-की-पूरी होती है, अतः उन्हें भगवत्प्रेम भी पूरा प्राप्त था! इस प्रकार तीनों प्रकारके साधनोंमें पारंगत महापुरुष बहुत कम मिलते हैं! 


ऐसे महापुरुषने जीवोंके कल्याणके लिए इन तीनों प्रकारके साधनोंका विवेचन समय-समयपर अपने प्रवचनोंमें किया हैं! वे प्रवचन भी एकांतमें गंगा किनारे महान पवित्र भूमि स्वर्गाश्रममें, जंगलमें, वटवृक्षके नीचे दिए गये थे! वे प्रवचन किन्हीं सज्जनने लिख लिए थे! उन प्रवचनोंको पुस्तकरूप देकर प्रकाशित किया जा रह है! इनको प्रकाशित करने का हमारा उदेश्य यही है की जिस साधनमें हम चल रहे हैं, उसका मर्म समझकर हम शीघ्र-से-शिघ्र अपने लक्ष्य परमात्माप्राप्तिको प्राप्त कर लें! इन प्रवचनोंमें ऐसे भी प्रवचन हैं जिनसे  हम गृहस्थमें रहते हुए अपने व्यवहारको कैसे सुधारें! हमें आशा है की इससे पाठकोंका विशेषरूपसे आद्यात्मिक एवं व्यवहारिक लाभ होगा! इसलिए विनम्र प्रार्थना है की इन्हें मनोयोग्पुर्वक स्वंय पढ़े और यदि आपको लाभ मालुम दे तो अपने मित्र-बांधवोंको भी पढनेकी प्रेरणा दें! 

मंगलवार, 10 अप्रैल 2012


भगवान् के रहनेके पाँच स्थान : ...... गत ब्लॉग से आगे ....


उस समय वस्त्र, पीढ़ा और चरणपादुका आदि वस्तुओंका विधिपूर्वक दान करे! दशाहके चौथे दिन किया जानेवाला (चतुर्थाह) तिन पक्षके बाद किया जानेवाला( त्रैपाक्षिक अथवा साधर्मासिक), छः मासके भीतर होनेवाला तथा वर्षके भीतर किया जानेवाला श्राद्ध और इनके अतिरिक्त बारह महीनोंके बारह श्राद्ध - कुल सोलह श्राद्ध माने गए हैं! जिसके लिए ये सोलह श्राद्ध यथाशक्ति श्रद्धापूर्वक नहीं किये जाते, उसका पिशाचत्व स्थिर हो जाता है! अन्याय सैकंडों श्राद्ध करनेपर भी प्रेतयोनिसे उसका उद्धार नहीं होता! एक वर्ष व्यतीत होनेपर विद्वान् पुरुष पार्वण श्राद्धकी विधिसे सपिण्डीकरण नामक श्राद्ध करे! 


ब्राह्मणने पूछा - केशव! तपस्वी, वनवासी और गृहस्त ब्राह्मण यदि धनसे हीन हो तो उसका पितृ - कार्य कैसे हो सकता है? 


श्रीभगवान बोले -- जो तृण और काष्ठका उपार्जन करके अथवा कौड़ी -कौड़ी माँगकर पितृकार्य करता है, उसके कर्मका लाख गुना अधिक फल होता है! कुछ भी न हो तो पिताकी तिथि आनेपर जो मनुष्य केवल गौओंको घास खिला देता है, उसे पिण्डदानसे भी अधिक फल प्राप्त होता है! पूर्वकालकी बात है, विराटदेशमें एक अत्यंत दीन मनुष्य रहता था! एक दिन पिताकी तिथि आनेपर वह बहुत रोया; रोनेका कारण यह था कि उसके पास ( श्राद्धोपयोगी) सभी वस्तुओंका अभाव था! बहुत देरतक रोनेके पश्चात उसने किसी विद्वान् ब्राह्मणसे पूछा- 'ब्रह्मण! आज मेरे पिताकी तिथि है, किन्तु मेरे पास धनके नामपर कौड़ी भी नहीं है, ऐसी दशामें क्या करनेसे मेरा हित होगा? आप मुझे ऐसा उपदेश दीजिये, जिससे मैं धर्ममें  स्थित रह सकूँ!


विद्वान् ब्राह्मणने कहा -- तात! इस समय 'कुतप' नामक मुहर्त बीत रहा है, तुम सीघ्र ही वनमें जाओ और पितरोंके उदेश्यसे घास लाकर गौको खिला दो! 


तदन्तर, ब्राह्मणके उपदेशसे वह वनमें गया और घासका बोझा लेकर बड़े हर्षके साथ पिताकी तृप्तिके लिए उसे गौको खिला दिया! इस पुण्यके प्रभावसे वह देवलोकको चला गया! पितृयज्ञसे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है; इसलिए पूर्ण प्रयत्न करके अपनी शक्तिके अनुसार मात्स्यर्भावका त्याग करके श्राद्ध करना चाहिये! जो मनुष्य लोगोंके सामने इस धर्मसंतान ( धर्मका विस्तार करनेवाले) अध्यायका पाठ करता है, उसे प्रत्येक लोकमें गंगाजीके जलमें स्नान करनेका फल प्राप्त होता है! जिसने प्रत्येक जन्ममें महापातकोंका संग्रह किया हो, उसका वह सारा संग्रह इस अध्यायका एक बार पाठ करने या श्रवन करनेपर नष्ट हो जाता है! 


[२२] 

सोमवार, 9 अप्रैल 2012

गीताप्रेस भगवान की है

गीताप्रेस भगवान की है, यहाँ गीता छपती है । आपलोग यह समझेँ कि इन टाइपोँ मेँ गीता टाइप हो रही है । गीता भगवान का हृदय है । चित्र छपते है वे भी भगवान के निमित्त ही छपाये जाते हैँ । सब समय सब चीजोँ मेँ भगवान को देखकर ही चेष्टा करनी चाहिए-

सो अनन्य जाकेँ असि मति न टरइ हनुमन्त ।
मैँ सेवक सचराचर रुप स्वामि भगवन्त ॥

भगवान सब जगह हैँ, उनके चरण, नेत्र, हाथ, मस्तक आदि सब जगह हैँ, इसलिए सब जगह भगवान को समझकर सबकी सेवा करनी चाहिए । सब भगवानकी सन्तान हैँ, सब भाई हैँ सबकी सेवा करना हमारा परम कर्तव्य है । सब हमारी आत्मा हैँ आत्माकी तरह सबको समझेँ । भाई से कभी वैर भी हो सकता है पर आत्मा से नहीँ । सबकुछ मेरे इष्टदेव का स्वरुप है । कभी क्रोध मेँ आकर अपने-आपको भी मनुष्य नुकसान पहुँचा सकता है, पर अपने इष्टदेवको नहीँ ।

सत्य, अहिँसा, ब्रह्मचर्य, समयकी अलौकिकता, प्रभु का ध्यान, बाहर-भीतर की सफाई, सबके साथ पवित्र व्यवहार करेँ । काम, क्रोध, मोह, लोभ को निकालेँ । प्रभुसे प्रार्थना करेँ- हे नाथ ! आपमेँ हमारा प्रेम हो । एकांतमेँ दिल खोलकर गद्गद वाणी से करुणभावसे प्रभु से प्रार्थना करेँ । भगवान बड़े प्रेमी हैँ, दयालु हैँ, जो यह समझ लेता है उसका उद्धार होने मेँ क्या देर है । यह भक्तिमार्ग बड़ा सुगम है ।