गीतामें भगवान् बताते है --
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:।। (गीता ६/२९)
सर्वव्यापी अनन्त चेतनमें एकीभावसे स्थितिरूप योगसे युक्त आत्मावाला तथा सबमें समभावसे देखनेवाला योगी आत्माको सम्पूर्ण भूतोंमें स्थित और सम्पूर्ण भूतोंको आत्मामें कल्पित देखता है!
जैसे अज्ञानी आदमी अपने शरीरमें आत्मभाव रखता है, ऐसे ही ज्ञानी महात्मा सम्पूर्ण ब्राह्माण्डमें अपनी आत्माको देखते हैं। जीवात्मा, परमात्माकी एकताका नाम है योग, उसमें जिसकी आत्मा जुडी हो उसका नाम है योगयुक्तात्मा। अथवा योगके द्वारा परमात्माके स्वरुपमें युक्त आत्मा है जिसकी, उसको योगयुक्तात्मा कहते हैं।
प्रशान्तमनसं ह्योनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभुतकल्मषम् ।। (गीता ६/२७)
जिसका मन शान्त है, जिसका रजोगुण शान्त हो गया है, जो पापसे रहित है ऐसा योगी उत्तम सुखको प्राप्त होता है । उत्तम सुख क्या है? परमात्माकी प्राप्ति। ब्रह्म सम होता है, इसलिये उस ब्रह्मभूत योगिकी समतामें स्थित है।