प्रवचन नंबर ४
स्वर्गाश्रम, १९४५, प्रातःकाल वटवृक्ष
भगवान गीताजी में कहते हें अ. २ श्लोक ११ से लेकर ३० तक-
“हे अर्जुन! जो शोक करनेलायक नहीं है उनके लिए तू शोक करता है और पंडितोंकी-सी बात बनाता है किन्तु वास्तवमें पंडित है नहीं| जो पंडित होते हें वेह जिनके प्राण चले गए उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हें उनके लिए भी शोक नहीं करते| ”
यहांपर कई भाई इसलिए भी आते हें की वहाँ चलो, बातें सुनेंगे तो चिंता फिकर दूर होगी| सभी लोग चिंता फिकर में डूबे हुए हें किन्तु वे मानते नहीं, वनमें मृग हरी-हरी घास चरते हें उन्हें पता नहीं अचानक सिंह आकार मार देगा| इसी प्रकार हम विषय-भोग भोगते हें, यह पता नहीं की काल अचानक आकार मारेगा| आजकल छोटी उम्रमें अधिक बालक मरते हें, इसलिए किसीभी उम्रमें कोई भी मर सकता है| यह ख्याल करना चाहिए की जो मर चुके, बाकी बचे हें उन्हें और मारना है, कोई उपाय नहीं जिससे कोई बच सके|
घर में कोई मर जाए तो चिंता-फिकर नहीं करनी चाहिए| शोक तो करना ही नहीं चाहिए| यह उपदेश भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के प्रति दीया की तू शोक नहीं करनेवालों के लिए शोक करता है, तू कुतुम्ब्वालों के लिए शोक करता है| वह शोक करने लायक नहीं हें|
रघुनन्दन नाम के व्यक्ति का शरीर शांत हो गया, उसके घर वाले शोक कर रहे थे, उन्हें समझाया गया की शोक नहीं करना चाहिए| किसी के घर में कोई मर जाता है, तो बाहर से आदमी आते हें उन्हें कष्ट होता है| किसी के यहाँ कोई मर जाए तो आनेवाले जो हो उन्हें पत्र लिखकर मन कर देना चाहिए की जो बात होनी थी वह तो हो गयी| आपको आने-जाने में तकलीफ होगी|
हर एक भाई, माता-बहन को यह बात समझनी चाहिए की घर में शोक हो जाए तो सत्संग करनी चाहिए| अभिमन्यु की मृत्यु हो गयी तो ऋषि लोग आये राजा युधिष्ठर को उपदेश दीया की अभिमन्यु शोक करने लायक नहीं है| शोक करने लायक वह है जो आत्महत्या करता है| विष्णु पुराण में एक कथा है की यमराज अपने दूतों को समझा रहे हें की जहाँ कीर्तन होता है, उस मृतक के पास तुम मत जाना| जाओगे तो फजीती होगी|
शोक करने लायक बात तो यह है की हम जिस काम के लिए आये थे, वह पूरा नहीं हो पाया| जो समय चला गया वह तो लौटकर आनेका नहीं है| बचा हुआ समय है, उसे काम में लेना चाहिए| मनुष्य का जन्म पाकर मुक्त नहीं हुए तो कब होंगे?
आत्मा ना जन्मता है ना मरता है, वह नित्य है, अजन्मा है, शास्वत है| जो आत्माका जन्मना मारना मानते हें यह मूर्खों का सिद्धांत है| यदि वह भी सिद्धांत माना जाए तो उनके सिद्धांत से भी यह बात सिद्ध होती है की जो जन्मे हें वह तो मरेंगे ही| मतलब किसी भी प्रकार से शोक करना बनता ही नहीं|यदि कहो की हम तो आत्मा का शरीरों से वियोग होता है उसके लिए शोक करते हें, तो उसके लिए भी शोक करना नहीं चाहिए| गीता(२/२२) में भगवान ने कहा हें की जीवात्मा वस्त्रों के प्रकार शरीर बदलता रहता है|
आप कहें की यह उपदेश तो अर्जुन के प्रति था, जहाँ सभी तरह के वृद्ध, युवा आदि पुरुष थे| बात यह है की जिसकी आयु समाप्त हो चुकी है वही पुराना है| धोबिसे धुलकर आये पुराने कपडे भी नए दीखते हें| किन्तु धोबी जानता है की कौन से कपडे नए हें और कौन से पुराने हें| इसी प्रकार भगवान तो सबको जानते ही हें, कौन नया है कौन पुराना है (गीता ७/२६)|
जिसकी आयु खत्म हो गयी वे पुराने ही हें| सबके शरीर की आयु सामान नहीं होती, कपडा भी कोई ५ वर्ष, कोई २ वर्ष, कोई १ वर्ष टिकता है| कोई पूछे की कपडा तो पुँराना उतारते समय और नया पेहेनते समय प्रसन्नता होती है| ठीक है, किसको प्रसन्नता होती है? समझ्दारको, न की बच्चेको? बच्चा तो कपडे बदलते समय रोता है| किन्तु माँ उसके रोने की परवाह ही नहीं करती| इसी प्रकार भगवान हमारी परवाह नहीं करते और गंदे शरीर को बदलकर नया शरीर देते हें| समझदार आदमी किसी की मृत्यु पर रोते नहीं| गीता(२/१३) में भगवान ने कहा हें की धीर पुरुष होते हें वेह नहीं रोते|
हमें यही बात तो समझनी है की हमारे घर में कोई मरे और हम रोवे तो यह हमारी मूर्खता है| कोई भी रोता है तो वह मूर्खता का परिचय देता है| हाँ भगवान के लिए तो रोना चाहिए यह तो संतो का आदेश है|
केशव केशव कुकिये ना कुकिये असार |
हे केशव! हे नाथ! इस प्रकार रोना चाहिए| असार संसार के लिए कभी नहीं रोना चाहिए| लोग रोते हें असार संसार के लिए, संसार के लिए रोनेसे कोई काम होगा नहीं| दुर्वासा ऋषि के आने पर द्रौपदिने भगवान को पुकार लगाइ, भगवान प्रकट हो गए| भगवान के लिए रोना तो फायदे की चीज़ है| और रोना उस वस्तु के लिए चाहिए जिससे हमें शान्ति मिले|
भक्तिकी की दृष्टि से-यह समझना चाहिए की घर में कोई मर गया तो शोक क्यों करे? आप गीता भवन में रहते हें, हमारे यहाँ रूपया जमा करा दें और जाते समय रूपया आप वापस ले लें तो हम दुःख करें तो हमारी नालायकी है| इसी प्रकार भगवानने लड़के को हमारे पास रक्षा के लिए दे दीया, वे उसे वापिस लेते हें तो हम उसके लिए रोवे तो यह हमारी मूर्खता है| जिस प्रकार हंसकर किसी की चीज़ राखी, उसी प्रकार हंसकर दे देना इमानदारी है| नहीं तो बेईमानी है| दूसरों के चीज़ रह ही कैसे सकती है| भलमानसी है जो प्रसन्नता से चीज़ लौटा दें, नहीं तो फजीती होगी, चीज़ तो वापस देनी ही पड़ेगी| भगवान के यहाँ तो उसका और अच्छा प्रबंध है| हम रोवें तो वे कहते हें की कम्बक्थ है यह, यह मेरा भक्त कहाँ है? मेरा भक्त होता है वह तो मेरी इच्छाओं के अनुकूल ही अपनी इच्छा रखता है| भगवान की इच्छा के बिना तो कोई मर नहीं सकता| भक्त तो वही होता है जो स्वामी के किये हुए कार्य पर नाराज नहीं हो एवं दुःख नहीं मानें|
कर्मयोग की दृष्टि से विचार करो – कोई जन्मा और मर गया, सोचना चाहिए जन्मा और चला गया, कारण क्या है? रोना तो इसलिए है की १६ वर्ष तक पाला-पोसा और रूपया खर्च किया और वह चला गया| तो सोचना चाहिए की उसका हमारे पास ऋण था, वह पूरा करके चला गया| उसके हम ऋणी थे, अब खाता नकी हो गया| एक प्रकार से हम ऋण से मुक्त हो गए| ऋण से मुक्त हो गए तो खुशी होनी चाहिए और परमात्मा से प्रार्थना करनी चाहिए की सबके ऋण से हमें मुक्त कर दो| और कोई पाप किये हें उनका फल भुगताकर मुक्त कर दो| भीष्मपीतामाह प्रार्थना करते हें की जो कोई पाप हें वे आकर इसी शरीर से अपने पाप भुगता लें |
वैराग्य की दृष्टि से भी शोक नहीं करना चाहिए- हम रेल में बैठते हें, रास्ते में कई आदमी आते हें, कोई उतर जाता है तो हम खुश होते हें की भीड़ कमती हो गयी| इसी प्रकार यह रेल का डिब्बा है, इसमें से से कोई मर गया (उतर गया) तो और अच्छा हुआ| इसमें शोक की क्या बात है? और यह बात है की हमने मान लिया यह हमारा लड़का! यह हमारा पोता! तब शोक होता है, नहीं तो लड़के तो रात-दिन संसार में मरते ही रहते हें| तुमने अपनी मान्यता की स्थापना करी की यह हमारा लड़का ! यह हमारा पोता ! अब रोते हो| इसलिए हर एक माता, भाई, बहन को ऐसा विचार करके शोक नहीं करना चाहिए|
दुःख का मूल है वह ममता ही है| सत् वस्तु परमात्मा है| नाश्वान वस्तु है संसार| परमात्मा के साथ कोई प्रेम करेगा उसे रोना नहीं पड़ेगा| भगवान के साथ संयोग हो गया तो वियोग होनेका ही नहीं| प्रेम के लायक तो भगवान ही है, इसलिए सारे पदार्थों से प्रेम हटाकर केवल प्रभु से प्रेम करना चाहिए| केवल प्रभु के साथ प्रेम है उसीका नाम है अनन्य-भक्ति| बस ! अनन्य भक्ति है तो और कोई चीज़ की जरूरत ही नहीं हें (गीता ११/५४)|
उनके जन्म को धिक्कार है जो परमात्मा को छोडकर संसार में प्रेम करता है| जितने शरीर हें, पदार्थ हें वह तो मैले के सामान हें| इस शरीर में ९ द्वार हें, उनके द्वारा मल-ही-मल निकलता रहता है, दुर्गन्ध-ही-दुर्गन्ध है| प्रेम के लायक कौन सी चीज़ है ? प्रेम करने लायक तो भगवान का दिव्य माधुर्य स्वरुप है, वे आनंदमय हें, शुद्ध हैं, वे अमृतमय हैं, उन माधुर्य मूर्ति भगवान से प्रेम करना चाहिए| इस असार संसार से क्या प्रेम किया जाय |
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण.............
[पुस्तक 'भग्वान्नाम महिमा एवं परम सेवा का महत्त्व' श्री जयदयाल जी गोयन्दका, गीता प्रेस गोरखपुर ] शेष अगले ब्लॉग में ......