※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 31 मई 2012

भगवान और महापुरुषों के प्रभाव की बातें

प्रवचन  नंबर ७.
चित्रकूट, रामधाम, १६-१२-१९५९



पापी-से-पापी का भी भगवान की शरण होने से कल्याण हो जाता है, यह भगवान का अलौकिक प्रभाव है| यशोदा के आँगन में जो रेती है उसमें भगवान खेलते हैं, सो उसमें भगवान के चरण लगनेसे उसके हर कण में मुक्ति देने की शक्ति है| यह भगवान का अलौकिक प्रभाव है|

इसी तरह से महात्मा पुरुष हैं| उन्होंने जहाँ वास किया वह स्थान भी तीर्थ हो गया, जहाँ पतिव्रता स्त्री रही, वह स्थान भी तीर्थ हो गया| जैसे यहाँ से ११ मील दूर अनसूयाजी का मंदिर है, अनसूयाजी पतिव्रताओं में श्रेष्ठ मानी जाती हैं| अयोध्याजी में मरनेसे कल्याण हैं, मथुरा-वृन्दावन में मरनेसे कल्याण हैं|

आप व्यवहार करो उस समय भगवान श्री रामचंद्रजी को याद करो तो बहुत ज्यादा लाभ हो सकता है| कहना नहीं चाहिए, परन्तु मुझको तो बहुत लाभ हुआ है| भगवान को याद करते हुए, कीर्तन करते हुए, भगवान का नाम या कीर्तन सुनते हुए, भगवान को नमस्कार करते हुए जो शरीर छोड़कर जाता है उसका कल्याण हो जाता है| 

भगवान का नाम-जप करते हुए, कथा, गीताजी आदि सुनते हुए जो जाता है उसका कल्याण हो जाता है| महात्मा जो कहते हैं वे शब्द आकाश में रहते हैं, कोई अधिकारी पुरुष आता है तो वे उसकी मदद करते हैं क्योंकि शब्द तो नित्य हैं|

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण.............      
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बुधवार, 30 मई 2012

भगवान की इच्छा में अपनी इच्छा मिला दें


प्रवचन  नंबर ६
चित्रकूट , रामधाम , १५-१२-१९५९ 

१.       सांसारिक सुख है उसमे भोगकालमें  सुखकी प्रतीति होती है परन्तु परीणाममें वह बहुत दुख देनेवाला है|

२.      दूसरेकी किसी प्रकारकी उन्नति देखकर मन मे जो दुख होत है वह  संताप है|

३.      पहले जो आदमी सुख भोग लेता है फिर उसको दुख आता है तो वह रात-दिन रोता है|

प्रश्न - भगवान को अच्छा समझ करके भी भगवान का ध्यान नहीं लगता है इसमें क्या कारण है?

उत्तर – श्रद्धा की कमी या विशवास कि कमी है और कोई कारण समझ मे नहीं आता| भगवान पर विश्वास करके या गीताजी पर विश्वास करके भगवानमें प्रेम करना चाहिये|

४.     सत्पुरूषों का संग, सत्संग और शास्त्रों को पढ़नेसे, भगवान मे प्रेम होने से, भोगोमें  दुख अनुभव करनेसे भी संसारसे वैराग्य हो सकता है|

५.     संसारमें भगवान के समान कोइ है ही नहीं, यह विश्वास हो जाए तो भगवान में प्रेम हो जाए| भगवान जितना प्रेमका मूल्य देते है उतना कोइ देता नहीं| 

  भगवानमें गुणोंका पार ही नहीं है| उनके सौंदर्य, गुन, प्रभाव, दया, सुहृदयता आदि गुणों को देखे तो और कहीं  इतने मीलेंगे ही नहीं| अगर ये विशवास हो जाय तो भी भगवानमें प्रेम हो जावे|


६.      भगवान का व्यवहार भी अद्भुत है| उनके व्यवहार से शत्रुओं को भी आश्चर्य होता है|

७.     अपनेको ये विश्वास हो जाय, निश्चय हो जाय कि भगवानके सिवाय हमारा कोइ हितैषी नहीं है, तो भी भगवान से प्रेम हो जावे|

८.      भगवानके जप से या ध्यान से भी भगवानमें प्रेम हो जाता है| सत्संग से भी भगवानमें  प्रेम होता  है|

बीनु सत्संग न हरि कथा तेहि बीनु मोह न भाग |
मोह गये बीनु राम पद होइ न दृढ अनुराग  ||

अर्थसत्संग के बिन हरि कि कथा सुनने को नहीं मिलती, उसके बिना मोह नहीं भागता और मोह के गये बिना श्रीरामचंद्र के चरणोंमें अचल प्रेम नहीं होता |

९.      भगवान में जितनी सुख शान्ति है उतनी और किसी में भी नहीं है, अगर ये विश्वास हो जावे तो भी भगवानमें प्रेम हो जाये|
मैंने तो सारी बात भगवान पर छोड़ रखी है, जो होवे उसीमें आनंद है| अपनी इच्छा मिटा देवे और भगवानकी इच्छामें मीला देवे, तो अपना कल्याण हुआ ही पडा है| अपनी इच्छा रखी तो बहुत तकलीफ़ पाया| भगवान की इच्छामें इच्छा मिला देवे तो अपने कुछ करना ही नहीं है, जो होता है उसीमें आनंद है| 

सुखदेवजी (एक सत्संगी)- ने एकांतमें कहा की मेरेमें कोइ कमी हो तो दुर करो|
उत्तर - ये समझो कि भगवान के परम – धाममें जा रहे है अपने कुछ करना नहीं है| ये निश्चय  कर ले की अपने कल्याणमें शंका नहीं है|

आपलोगोंके लिये ये बात है कि मरनेवालो को आश्वासन देवे की तुमहारा निश्चित कल्याण है| भगवान्नाम-जप, कीर्तन करते हुए या सुनते हुए जिसका शरीर छूटा है उसका कल्याण निश्चित है|

जीनेवालों के लिये ये बात है की खुब भजन-धयान करे, गीता और महात्मा की बात माने तो उसके कल्याण में कोइ शंका नहीं है|

मरे हुए व्यक्तीके शवको अगर महात्मा देख लेवे तो वे जहाँ पर(यानी जिस लोकमे) गया हुआ है वहाँसे सीधे भगवानके यहाँ चला जाता है| फिर अगर जीते हुए को देख लेवे तो उसका कहना ही  क्या है?
मरनेवालेको  होश रहे तब तक भक्तिकी, ज्ञानकी बातें सुनावे और होश नहि रहे तब कीर्तन  सुनावे ( नारायण नारायण नारायण का कीर्तन सुनावे)

प्रश्न – सांसारिक काम करते हुए भगवान का विस्मरण हो जाता है, ये क्यूँ होता है?
उत्तर - इस संसारको स्वप्न मान लेवे तो उसमें आसक्ति नही रहेगी| भक्तिके मार्गमें भगवान की लीला समझ लेवे| इस संसारके शरीर, रुपया, स्त्री, पुत्र, आदमी में जो आसक्ति है वही पतन का मुख्य कारण है, इसको हटाना चाहीये|

विषयोंकी जो सत्ता है, तब उनका ध्यान अर्थात चिंतन होता है, ये बहुत हानिकारक है, इसी तरहसे भगवानका चिंतन होने लग जावे तो बहुत उत्तम है|


नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण.............      
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मंगलवार, 29 मई 2012

भगवानके ध्यान रूपी रस्सेको नहीं छोड़ें

प्रवचन नंबर ५ 
स्वर्गाश्रम,१९३६, सांयकाल
देखो ख्याल करने की बात है, और कोई साधन तो बने ना बने यह साधन ना छोडें, भगवानका ध्यान न छोड़ें| भगवान का भजन – ध्यान सब वीघ्नोको नष्ट कर देता है| यह ध्यान बाहरके, भीतरके सब वीघ्नोको नाश कर देता है| यह निश्चय कर लें – अंत समयमें जिसका ध्यान हो जाता है वह वही बन जाता है, अत: अंत समय में भगवानको याद करनेके लिए पहलेसे ही अभ्यास करें| भगवन्नाम का जाप खूब करें| ध्यानसे प्रसन्नता और शांति रहती है| और उस समय दुराचार, काम, क्रोध  आदि पास नहीं आते|

ध्यान भक्ति का प्रधान अंग है| भगवान कहते हैं- उसका योगक्षेम में वहन करता हूँ जो निरंतर मुझे याद रखता है| नहीं तो पता नहीं हम कहाँ जन्मेंगें? शास्त्र कहते हैं धुल के कणोंकी गिनती हो सकती है, पर यह जीव कितनी बार इन्द्र और ब्रह्मा हो गया इसका पता नहीं| संसार समुद्रमें डूबते के लिए भगवान का ध्यान आधार है| इस ध्यान्रुपी रस्से को नहीं छोडें| फिर क्या पता ऐसा मौका हाथ लगे या ना लगे (यानी मनुष्य शरीर वापस मिले ना मिले)| 

ध्यान के लिए जरूरी से जरूरी बात (काम) छोड दें| पर इसे, ध्यानको न छोड़ें| इतना मौका दुसरे जन्ममें लगे यह भरोसा नहीं रखें, क्या पता दुसरे जन्ममें क्या बनेगें| इसलिए सब काम छोड़कर इस कामको करें|

जो सीर सांटे हरी मिले, तो पुनि लीजे दौड |
क्या जाने इस देर में, ग्राहक आवे और |
 
 नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण.............      
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सोमवार, 28 मई 2012

किसी भी सिद्धांत से शोक करना नहीं बनता, दुःख का मूल है ममता

प्रवचन नंबर ४ 
स्वर्गाश्रम, १९४५, प्रातःकाल वटवृक्ष

भगवान गीताजी में कहते हें अ. २ श्लोक ११ से लेकर ३० तक-
हे अर्जुन! जो शोक करनेलायक नहीं है उनके लिए तू शोक करता है और पंडितोंकी-सी बात बनाता है किन्तु वास्तवमें पंडित है नहीं| जो पंडित होते हें वेह जिनके प्राण चले गए उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हें उनके लिए भी शोक नहीं करते|

यहांपर कई भाई इसलिए भी आते हें की वहाँ चलो, बातें सुनेंगे तो चिंता फिकर दूर होगी| सभी लोग चिंता फिकर में डूबे हुए हें किन्तु वे मानते नहीं, वनमें मृग हरी-हरी घास चरते हें उन्हें पता नहीं अचानक सिंह आकार मार देगा| इसी प्रकार हम विषय-भोग भोगते हें, यह पता नहीं की काल अचानक आकार मारेगा| आजकल छोटी उम्रमें अधिक बालक मरते हें, इसलिए किसीभी उम्रमें कोई भी मर सकता है| यह ख्याल करना चाहिए की जो मर चुके, बाकी बचे हें उन्हें और मारना है, कोई उपाय नहीं जिससे कोई बच सके|

घर में कोई मर जाए तो चिंता-फिकर नहीं करनी चाहिए| शोक तो करना ही नहीं चाहिए| यह उपदेश भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के प्रति दीया की तू शोक नहीं करनेवालों के लिए शोक करता है, तू कुतुम्ब्वालों के लिए शोक करता है| वह शोक करने लायक नहीं हें|
रघुनन्दन नाम के व्यक्ति का शरीर शांत हो गया, उसके घर वाले शोक कर रहे थे, उन्हें समझाया गया की शोक नहीं करना चाहिए| किसी के घर में कोई मर जाता है, तो बाहर से आदमी आते हें उन्हें कष्ट होता है| किसी के यहाँ कोई मर जाए तो आनेवाले जो हो उन्हें पत्र लिखकर मन कर देना चाहिए की जो बात होनी थी वह तो हो गयी| आपको आने-जाने में तकलीफ होगी|

हर एक भाई, माता-बहन को यह बात समझनी चाहिए की घर में शोक हो जाए तो सत्संग करनी चाहिए| अभिमन्यु की मृत्यु हो गयी तो ऋषि लोग आये राजा युधिष्ठर को उपदेश दीया की अभिमन्यु शोक करने लायक नहीं है| शोक करने लायक वह है जो आत्महत्या करता है| विष्णु पुराण में एक कथा है की यमराज अपने दूतों को समझा रहे हें की जहाँ कीर्तन होता है, उस मृतक के पास तुम मत जाना| जाओगे तो फजीती होगी|

शोक करने लायक बात तो यह है की हम जिस काम के लिए आये थे, वह पूरा नहीं हो पाया| जो समय चला गया वह तो लौटकर आनेका नहीं है| बचा हुआ समय है, उसे काम में लेना चाहिए| मनुष्य का जन्म पाकर मुक्त नहीं हुए तो कब होंगे?

आत्मा ना जन्मता है ना मरता है, वह नित्य है, अजन्मा है, शास्वत है| जो आत्माका जन्मना मारना मानते हें यह मूर्खों का सिद्धांत है| यदि वह भी सिद्धांत माना जाए तो उनके सिद्धांत से भी यह बात सिद्ध होती है की जो जन्मे हें वह तो मरेंगे ही| मतलब किसी भी प्रकार से शोक करना बनता ही नहीं|यदि कहो की हम तो आत्मा का शरीरों से वियोग होता है उसके लिए शोक करते हें, तो उसके लिए भी शोक करना नहीं चाहिए| गीता(२/२२) में भगवान ने कहा हें की जीवात्मा वस्त्रों के प्रकार शरीर बदलता रहता है|   

आप कहें की यह उपदेश तो अर्जुन के प्रति था, जहाँ सभी तरह के वृद्ध, युवा आदि पुरुष थे| बात यह है की जिसकी आयु समाप्त हो चुकी है वही पुराना है| धोबिसे धुलकर आये पुराने कपडे भी नए दीखते हें| किन्तु धोबी जानता है की कौन से कपडे नए हें और कौन से पुराने हें| इसी प्रकार भगवान तो सबको जानते ही हें, कौन नया है कौन पुराना है (गीता ७/२६)|

जिसकी आयु खत्म हो गयी वे पुराने ही हें| सबके शरीर की आयु सामान नहीं होती, कपडा भी कोई  ५ वर्ष, कोई २ वर्ष, कोई १ वर्ष टिकता है| कोई पूछे की कपडा तो पुँराना उतारते समय और नया पेहेनते समय प्रसन्नता होती है| ठीक है, किसको प्रसन्नता होती है? समझ्दारको, न की बच्चेको? बच्चा तो कपडे बदलते समय रोता है| किन्तु माँ उसके रोने की परवाह ही नहीं करती| इसी प्रकार भगवान हमारी परवाह नहीं करते और गंदे शरीर को बदलकर नया शरीर देते हें| समझदार आदमी किसी की मृत्यु पर रोते नहीं| गीता(२/१३) में भगवान ने कहा हें की धीर पुरुष होते हें वेह नहीं रोते|

हमें यही बात तो समझनी है की हमारे घर में कोई मरे और हम रोवे तो यह हमारी मूर्खता है| कोई भी रोता है तो वह मूर्खता का परिचय देता है| हाँ भगवान के लिए तो रोना चाहिए यह तो संतो का आदेश है|

केशव केशव कुकिये ना कुकिये असार |
हे केशव! हे नाथ! इस प्रकार रोना चाहिए| असार संसार के लिए कभी नहीं रोना चाहिए| लोग रोते हें असार संसार के लिए, संसार के लिए रोनेसे कोई काम होगा नहीं| दुर्वासा ऋषि के आने पर द्रौपदिने भगवान को पुकार लगाइ, भगवान प्रकट हो गए| भगवान के लिए रोना तो फायदे की चीज़ है| और रोना उस वस्तु के लिए चाहिए जिससे हमें शान्ति मिले|

भक्तिकी की दृष्टि से-यह समझना चाहिए की घर में कोई मर गया तो शोक क्यों करे? आप गीता भवन में रहते हें, हमारे यहाँ रूपया जमा करा दें और जाते समय रूपया आप वापस ले लें तो हम दुःख करें तो हमारी नालायकी है| इसी प्रकार भगवानने लड़के को हमारे पास रक्षा के लिए दे दीया, वे उसे वापिस लेते हें तो हम उसके लिए रोवे तो यह हमारी मूर्खता है| जिस प्रकार हंसकर किसी की चीज़ राखी, उसी प्रकार हंसकर दे देना इमानदारी है| नहीं तो बेईमानी है| दूसरों के चीज़ रह ही कैसे सकती है| भलमानसी है जो प्रसन्नता से चीज़ लौटा दें, नहीं तो फजीती होगी, चीज़ तो वापस देनी ही पड़ेगी| भगवान के यहाँ तो उसका और अच्छा प्रबंध है| हम रोवें तो वे कहते हें की कम्बक्थ है यह, यह मेरा भक्त कहाँ है? मेरा भक्त होता है वह तो मेरी इच्छाओं के अनुकूल ही अपनी इच्छा रखता है| भगवान की इच्छा के बिना तो कोई मर नहीं सकता| भक्त तो वही होता है जो स्वामी के किये हुए कार्य पर नाराज नहीं हो एवं दुःख नहीं मानें|

कर्मयोग की दृष्टि से विचार करो – कोई जन्मा और मर गया, सोचना चाहिए जन्मा और चला गया, कारण क्या है? रोना तो इसलिए है की १६ वर्ष तक पाला-पोसा और रूपया खर्च किया और वह चला गया| तो सोचना चाहिए की उसका हमारे पास ऋण था, वह पूरा करके चला गया| उसके हम ऋणी थे, अब खाता नकी हो गया| एक प्रकार से हम ऋण से मुक्त हो गए| ऋण से मुक्त हो गए तो खुशी होनी चाहिए और परमात्मा से प्रार्थना करनी चाहिए की सबके ऋण से हमें मुक्त कर दो| और कोई पाप किये हें उनका फल भुगताकर मुक्त कर दो| भीष्मपीतामाह प्रार्थना करते हें की जो कोई पाप हें वे आकर इसी शरीर से अपने पाप भुगता लें |

वैराग्य की दृष्टि से भी शोक नहीं करना चाहिए- हम रेल में बैठते हें, रास्ते में कई आदमी आते हें, कोई उतर जाता है तो हम खुश होते हें की भीड़ कमती हो गयी| इसी प्रकार यह रेल का डिब्बा है, इसमें से से कोई मर गया (उतर गया) तो और अच्छा हुआ| इसमें शोक की क्या बात है? और यह बात है की हमने मान लिया यह हमारा लड़का! यह हमारा पोता! तब शोक होता है, नहीं तो लड़के तो रात-दिन संसार में मरते ही रहते हें| तुमने अपनी मान्यता की स्थापना करी की यह हमारा लड़का ! यह हमारा पोता ! अब रोते हो| इसलिए हर एक माता, भाई, बहन को ऐसा विचार करके शोक नहीं करना चाहिए|

दुःख का मूल है वह ममता ही है| सत् वस्तु परमात्मा है| नाश्वान वस्तु है संसार| परमात्मा के साथ कोई प्रेम करेगा उसे रोना नहीं पड़ेगा| भगवान के साथ संयोग हो गया तो वियोग होनेका ही नहीं| प्रेम के लायक तो भगवान ही है, इसलिए सारे पदार्थों से प्रेम हटाकर केवल प्रभु से प्रेम करना चाहिए| केवल प्रभु के साथ प्रेम है उसीका नाम है अनन्य-भक्ति| बस ! अनन्य भक्ति है तो और कोई चीज़ की जरूरत ही नहीं हें (गीता ११/५४)|

उनके जन्म को धिक्कार है जो परमात्मा को छोडकर संसार में प्रेम करता है| जितने शरीर हें, पदार्थ हें वह तो मैले के सामान हें| इस शरीर में ९ द्वार हें, उनके द्वारा मल-ही-मल निकलता रहता है, दुर्गन्ध-ही-दुर्गन्ध है| प्रेम के लायक कौन सी चीज़ है ? प्रेम करने लायक तो भगवान का दिव्य माधुर्य स्वरुप है, वे आनंदमय हें, शुद्ध हैं, वे अमृतमय हैं, उन माधुर्य मूर्ति भगवान से प्रेम करना चाहिए| इस असार संसार से क्या प्रेम किया जाय |  

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण.............       

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रविवार, 27 मई 2012

सुनानेवाले का भी कल्याण, सुननेवाले का भी कल्याण, यह गति काशी आदि सप्त्पुरिकी मृत्युसे बढ़कर है|


प्रवचन नंबर ३

स्वर्गाश्रम ३१-०५-१९४३  प्रातःकाल वटवृक्ष




मनुष्य को यदि मारना हो तो जप-ध्यान करते हुए मरना चाहिए | यह मारना काशीमें मरनेसे भी बढ़कर है|

जो पुरुष अन्त्काल्में मेरेको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात स्वरुप को प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है|

प्रभो! मैं साक्षात दर्शन का पात्र नहीं हूँ तो हे प्रभो! अन्त्काल्में आपकी स्मृति तो दे दो | सारे जन्म के किये हुए शुभ कर्मों के बदलेमें यह सौदा होता हो तो करलो| भगवान से कुछ नहीं माँगना चाहिए, पर मांगो तो यह मांगलो | बालिकी बात आती है- अब तो प्रभु येही कृपा करो की जिस-जिस योनी में अपने कर्मों के अनुसार जन्म लू, उस-उस योनी में आपमें प्रेम हो और आपके चरणों में अनुराग हो|बाली में कितना स्वार्थ त्याग है, इसलिए भगवानने बाली को परमधाम भेज दीया|

प्रकरण यह चल रहा था की अन्त्समयमें मरनेवाले भाई-बहेंन को जाकर भगवन्नाम सुनावे, तो उस नाम सुननेवाले के निमित्त से मरनेवाले के प्राण भगवान को याद करते हुए निकलें तो उसका बेडा पार है, सुनानेवाले भाईका काम हो गया| अंतकालकी यह गति काशीमें मरने से भी बढ़कर है| सप्तपुरियों(सप्तपुरियोंके नाम- अयोध्या, मथुरा, मायापुरी[कनखल-हरिद्वारसे लेकर लक्ष्मण झूले तक], काशी, कांची[तमिलनाडु], अवंतिका[उज्जैन], द्वारकापुरी)- से भी बढ़कर है| काशी में जो पापी मरता है उसे पाप का दंड भुग्ताकर मुक्ति दी जाती है, ३६००० वर्ष तक की पाप भुगतने की अवधि है | पर जो भगवान के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, तत्व और रेहेस्यों को याद करता हुआ जाता है वह तो तत्काल ही मुक्त हो जाता है| उसकी सद्योमुक्ति हो जाती है| चाहे वह काशी में न मरकर हरिजन के घरमें ही मरे| गीताजी कहती है – अन्तकाले च मामेव (गीता ८/५) | यह कोई रियायत की बात नहीं है, यह भगवान का सामान्य कानून है | 

यह मनुष्य अंतकालमें जिस-जिस भी भावको स्मरण करता हुआ शरीरको त्यागता है, उस-उसको ही प्राप्त होता है| परन्तु सदा जिस भाव का चिंतन करता है प्रायः अन्त्काल्में  भी उसीका स्मरण होता है |          

कुत्तेको याद(मनन) करता हुआ जाता है तो कुत्ता बनता है| गधे को याद करता है तो गधा बनता है| ऐसे ही भगवान के लिए भी यही कानून है की भगवान को याद करता हुआ जो जाता है वह भगवान को प्राप्त होता है |

डाक्टरी दवाईमें ब्रांडी(मदिरा) होती है जिससे तामसी वृत्ति हो जाती है| मरते समय ताम्सिवृत्ति में रहनेवाला वृक्ष या पहाड़ बनता है| डाक्टरी दवाई देने की अपेक्षा देशी, शुद्ध एवं पवित्र औषध देनी चाहिए| जीना होगा तो वैद्य की दवा से ही जी जाएगा, डाक्टरी दवा से क्या फायदा? मरनासन्न व्यक्ति को भगवन्नाम कीर्तन सुनना चाहिए| जिससे उसकी आत्मा का कल्याण हो|

भीष्मजी शर-शय्यापर पड़े हें, अपने योग्य जल मांगते हें, अर्जुन ने बाण मारकर गंगाजल प्रकट कर दीया|  भीष्मजी तो गंगापुत्र थे उनके लायक वही जल था| अन्त्समय में गंगाजल पिलाने से बुद्धि शुद्ध हो जाती है, अंत: करण पवित्र हो जाता है| उसमें भगवान का भाव हो जाता है | वाणीसे भगवन्नाम उचारण करें, वाणी थक जावे तो श्वास से जप करें | मनसे भगवान का ध्यान करें, हाथोंसे मस्तक् से भगवान को नमन करें| कल्याण तो केवल भगवान के स्मरण से ही हो जाता है| 

भजन, ध्यान, नाम-जप किसीभी एक चीज़ से भगवान प्रसन्न हो जाते हें| गीताजी(१०/२५) में कहा है – यज्ञ सब साधन हें, जप यज्ञ खास मेरा स्वरुप है, खास भगवान हें|

हमारी मृत्यु होनेवाली हो तो सब चीजों की यानी भजन, ध्यान, जप सबकी चेष्ठा करें| दुसरे की मृत्युं का समय हो और हम लोगोकों उसे भगवन्नाम सुनानेका मौका मिल जाए तो बहुत ही आनंद की बात है| दुसरे को भोजन कराना, एवं जरूरत पड़नेपर खुद त्याग करना यह बहुत उच्च्कोटी का भाव है| त्याग से तत्काल ही परम शान्ति होती है| जितना त्याग है उतना ही ऊँचा है|”(गीता १२/१२)

अगर आकाशवाणी हो जाए की बोलो – किस एक का कल्याण किया जाय? मुझको पूछेंगे तो मैं तो यही कहूँ की प्रभु! मुझको छोडकर चाहे जिसका कर दो| यदि सब लोग यही बात कहें तो सब का कल्याण हो जाएगा| और यदि हम सब लोग यहीं कहे की बस मेरा कर दो, तो भगवान बोलेंगे बस निर्णय करके बतलाओ किस एक का करें| निर्णय नहीं करेंगे तो भगवान चले जायेंगे|

जो अपने कल्याणकी बात छोडकर दुसरे का कल्याण चाहता हें, उसे मुक्तिका सदाव्रत बाटने को मिलता है| मुक्त होना तो आराम चाहना है| अपने तो लोगों की सेवा मांगनी चाहिए| सदाव्रत बांटे, स्वयं चाहे उपवास ही करें| इस उप्वास्में बड़ी शान्ति होती है, यह बड़ा अलौकिक आनंद है|
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण.............      


[पुस्तक 'भग्वान्नाम महिमा एवं परम सेवा का महत्त्व' श्री जयदयाल जी गोयन्दका, गीता प्रेस गोरखपुर ] शेष अगले ब्लॉग में 



शनिवार, 26 मई 2012

जिसने गीता, गंगा और भगवान के नाम को अपनाया उसकी यमराज के यहाँ चर्चा नहीं होती




प्रवचन नंबर २ 
स्वर्गाश्रम १४-०४-१९४१ प्रातःकाल

मनमें जोश रखना चाहिए | जब परमेश्वरकी इतनी कृपा है तो उसकी कृपा से उनका ध्यान लगना कठिन नहीं है| सबसे बढ़कर उनकी यह दया है की मनुष्यका शरीर हमको दीया, भारतभूमि में जन्म और यह भागिरथिका तट प्राप्त हुआ | भारत में जन्म होकर भी वेदिक सनातन धर्म में जन्म हुआ- जो सबका आदि माना जाता है| फिर यह उत्तम-से-उत्तम स्थान, साथ-साथ कलियुग जिसमे थोड़े ही कालमें साधन करनेसे परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है| फिर भगवान की चर्चा यह सारी बातें परमात्माकी कृपासे ही प्राप्त होती है| 

इस दृश्य को घर जाकर भी याद करलें, तो स्वाभाविक ही वैराग्य की लहरें उठने लगे| यहाँ तो स्वाभाविक ही सात्विकता और वैराग्य का भाव होता है| यह भागीरथी गंगा है इसके दर्शन से अंतःकरण शुद्ध और सात्विक हो जाता है, फिर स्नान और पान की तो बात ही क्या है| शास्त्रों में गंगाजी के लिए यहाँ तक बताया है की गंगाजी के दर्शन से मनुष्य पवित्र हो जाता है और अन्त्काल्में उसे भगवान की प्राप्ति हो जाती है|

श्री शंकराचार्यजी कहते हें-
भगवद्गीता किंचिदधीता, गंगाजललवकनिका पिता
अर्थात- जिसने भगवद्गीता को कुछ भी पढ़ा है, गंगाजल की जिसने एक बूँद भी पी है, एक बार भी जिसने भगवान श्रीकृष्णचंद्र का अर्चन किया है, उसकी यमराज क्या चर्चा कर सकता है?
जो भगवद्गीता का किंचितमात्र भी अध्ययन करता है और गंगाजी के जल का लव मात्र फी पान करता है- उसकी यमलोक में चर्चा भी नहीं होती, उसकी आत्मा पवित्र हो जाती है| हमारे यहाँ परिपाटी है की जब मनुष्य मरता है उस समय उसे गीताजी सुनाई जाती है, तुलसीजीका और गंगाजल का पान कराया जाता है| इस भागीरथी गंगा के तट पर हम उपस्थित हुए हें- यह भागीरथिजी की कृपा है और भगवान की कृपा तो है ही| भगवान की जिसपर कृपा होती है, उसपर सबकी कृपा होती है| हम लोगों को वैराग्यपूर्वक ध्यान करना चाहिए| जब आनंद की घोषणा होती है, उस समय अलौकिक शान्ति प्रतीत होती है| यह प्रभु की अलौकिक कृपा है | ध्यान के पूर्व में वृत्तियाँ शांत हो जाती है | थोडा भी ध्यान लगता है तो शान्ति की बाढ़ आ जाती है, परमात्मा का जो चिन्मय स्वरुप है, उसका प्रादुर्भाव हो जाता है| उस समय अलौकिक शान्ति मिलती है| 

इसके पूर्व आपको थोडा गीताजी का सिद्धांत बताया जाता है| वास्तवमें गीताजी का सिद्धांत तो केवल भगवान ही जानते हें| यह ज्ञान-भक्ति का सागर है, अथाह है, इसमें जो डूबकी लगाता है, वह उस-मय हो जाता है| गीतारूपी जो गंगा है वह अपने आत्मा के कल्याण के लिए है, इस गीतारूपी गंगा का एक श्लोक धारण करलें, तो कल्याण हो सकता है| परमात्माकी प्राप्ति के लिए गीताजी का एक श्लोक बहुत है| गीताजी को हम गंगाजी से भी बढ़कर कह सकते हें| गंगा में स्नान करनेवाला आप खुद मुक्त हो सकता है, किन्तु गीतारूपी गंगा में स्नान करनेवाला दूसरों को भी मुक्त कर सकता है|        

|| हरिः ॐ तत्सत्  ||   

[पुस्तक 'भग्वान्नाम महिमा एवं परम सेवा का महत्त्व' श्री जयदयाल जी गोयन्दका, गीता प्रेस गोरखपुर ] शेष अगले ब्लॉग में ......

शुक्रवार, 25 मई 2012

परम सेवा




( प्रवचन नंबर १ )
एक सेवा है और दूसरी परम सेवा | दुसरे के हित के लिए भोजन-आचादन देना, शरीरको आराम पहूचाना, सांसारिक सुख के लिए तन-मन-धन अर्पण करना सेवा है | परम सेवा यह है की अपना तन-मन-धन अर्पण करके दुसरे का कल्याण कर दे | किसीको आजीविका देना यह लोकिक सेवा है और वह पारमार्थिक सेवा है की जो परमात्मा की प्राप्ति में लगे हुए हैं उन्हें हर-एक प्रकार की वास्तु दे, उन्हें परमात्मा के नजदीक पहुचने में मदद दे | कोई मरनेवाला है और उसकी इछा है की कोई मेरेको गीताजी सुनावे | आप उसके पास पहुँच गए और उसको गीताजी सुनाई तो यह परम सेवा हुई | परम सेवा वह है जिसके बाद उसको सेवा की आवश्यकता नहीं | आपने लाख आदमियों की सेवा की, रूपया-औषध दीया, भोजन आदि दीया और दूसरी तरफ आपने एक की भी परम सेवा की तो यह उससे बढ़कर है | उसके अनेक जन्मों का अंत करा दीया | अनंत जन्म होने से उसकी रक्षा कर दी |


गीताजी ( ९/२ ) में भगवान ने धर्म बताया है – “यह विज्ञानसहित ज्ञान सब विद्याओंका राजा, सब गोपनीयों का राजा, अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्षा फलवाला, धर्मयुक्त, साधन करनेमें बड़ा सुगम और अविनाशी है |” इस प्रकार भगवान प्रतिज्ञा करके कहते हैं | अर्जुन को शंका हुई की जब ऐसी सुगम और प्रत्यक्ष फलवाली धर्ममय बात है तो सब कोई इसका पालन क्यूँ नहीं करते ? तब भगवान ने कहा – (गीता ९/३ ) “हे परंतप ! इस उपर्युक्त धर्म में श्रद्धा रहित पुरुष मुझको ना प्राप्त होकर मृत्यु रूप संसार चक्र में भ्रमण करते रहते हैं |”


आपके द्वारा एक का कल्याण हो गया तो वह परम-सेवा है | इसके मुकाबले में करोडों की आजीवन सेवा भी नहीं है | जब आपको परम-सेवा का मौका मिले-मरनेवाला चाहता है की हमारा भविष्य नहीं बिगड़े तो ऐसी सेवा अवश्य करनी चाहिए | शिव का भक्त हो तो उसके गले में रुद्राक्ष की माला धारण कराये और विष्णु का भक्त हो तो भगवान नारायण का नाम, गुणों का कीर्तन सुनाये, तुलसी तथा गंगाजल देवे | अंतकाल में भगवान का नामस्मरण करावे | उसके सामने भगवान का चित्र रखे | नेत्रों के सामने भगवान का स्वरुप रहे और नामका कीर्तन होता रहे तो भीतर भगवान की स्मृति होगी | भागवत, रामायण की पुस्तकें मुफ्त में दे या कम कीमत में दें | भागवत, रामायण की कथा कहे-सुनावे या सुने | किसी प्रकार प्रचार करें | पैसा, समय, शक्ति इस काम में लगावें, जो अपने जन हो उन्हें भी इस काम में लगावें | तन-मन-धन-जन सबको भगवान के काम में लगावें | जो दूसरों में भगवान का प्रचार करता हैं, वह भगवान का परम-भक्त है | भगवान कहते हैं – ‘हे अर्जुन ! तुम्हारे और मेरे संवाद का जो कोई संसार में प्रचार करेगा, उससे बढ़कर मेरा प्यारा काम करनेवाला संसार में ना है और ना होगा |’ (गीता १८/६९)


परम-सेवा करने की कोशिश करें | भगवान से प्रार्थना करें | और इस काम के लिए अगर नरक में भी जाना पडें तो स्वीकार करें | वह नरक भी आपके लिए वैकुण्ठसे बढ़कर होगा | एक कथा आती है – कोई भक्त यमलोक के पास से होकर जा रहा था, उसे सुनाई पडा कुछ लोग रोते और चिल्लाते हें | उसने पार्षदों से पुचा की यह क्या बात है ? पार्षद बोले – ‘महाराज यह यमलोक है, यहाँ जीव यम-यातना भुगत रहे हें |’ अच्छा, तो विमान ठहराओ और कुछ नजदीक ले चलो | नजदीक पहुचें तो लोगों ने कहा की आपके दर्शन से और आपके स्पर्श की हुयी वायुसे हमें प्रसन्नता और शांति हो रही है | यमके सब शस्त्र भोथरे हो रहे हें, यम-यातना कम हो गयी है, इसलिए आपसे यह प्रार्थना है की आप जितनी देर अधिक ठहर सके उतने अधिक ठहर जाएँ | वे वही ठहर गए | पार्षदों ने कहा – महाराज! चलिए | उसने जवाब दीया – हम तो यहीं ठहरेंगे | पार्षदों ने कहा – आपको तो वैकुण्ठ लोकमें चलना है | तो उसने यह जवाब दीया की भगवान को यह सन्देश कहना की इन लोगों की भी वहाँ गुंजाइश होती हो तो वहाँ चले, अन्यथा हम यही रहेंगे | तुम पूछ आओ | पार्षद उधर गए और इधर इन्होनें भगवान का कीर्तन कराना शुरू किया तो भगवान प्रकट हो गए | सबका उद्धार कर दीया | अतएव आपको मौका मिला है | किसीकी परम-सेवा करने का मौका आये तो परम सौभाग्य मानना चाहिए |


कबीर भक्त थे और उनका लड़का कमाल भी भक्त था| कबीर अपने लड़के को कहा करते थे की बड़ी स्त्री मटके सामान है, छोटी बहेन के सामान, और भी छोटी हो वह पुत्री के सामान है | एक दिन कबिरने ने कहा – बेटा अब तुम्हारी उम्र १८ सालकी हो गयी है, तुम्हारा विवाह करेंगे, तो कमालने कहा – आप मेरा विवाह माता, बहिन या लड़की किसके साथ करेंगे? कहा भी गया है – ‘आधा भक्त कबीर था, पूरा भक्त कमाल |’


रैदास भगवान के भक्त थे, जातीके चमार थे | उनकी लड़की भी भक्त थी | कोई भगवान के दर्शन के लिए रैदास के घर आया | रैदास ने अपनी लड़की से कहा – बेटी, इसको गंगाजल पीला दो, इसे भगवान के दर्शन हो जायेंगे | जिस पानी में चमड़ा रंगा जाता था उसमे से लोटा भरकर ले गयी | चमड़ा रंगनेवाला होनेसे उसने वह पानी नहीं पिया, किन्तु एक दूसरा भक्त जिसकी श्रधा थी उसने पी लिया तो उसे भगवान के दर्शन हो गए, वह नाचने-गाने लगा | भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन हो गए| उसके कपड़ेपर कुछ पानी गिर गया था | वह कपडा निचोड़-निचोडकर लोग पानी पीने लगे, जिसने पीया उसको दर्शन हो गए| बादमें उस भक्त को अपनी भूल समझ में आई तो वह रैदासजी के पास पुनः गया तो रैदासजी ने कहा – ‘वह पानी मुल्तान गया अब फेर नहीं आवना |’ वह लड़की तोह सासुराल गयी| उसका ससुराल मुल्तान था|
यह मनुष्य-शरीर, भारतभूमि, आर्यावर्त, उसमें भी उत्तराखंड, भगवती गंगाका किनारा, उसकी रेनुकाका आसान, गंगाका जल पीने और स्नानके लिए मिलता है | इससे बढ़कर पवित्र और एकांत स्थान नहीं| ऐसा मौका अपने घरपर नहीं मिलता| वटकि छाया के मुकाबले और छाया नहीं जो शीत्काल्में गरम और गर्मिमें शीतल रहती है, इससे बढ़कर कोई नहीं | वैदिक सनातन धर्म सबसे प्राचीन है| उत्तम देश, काल और जाती मिली है, ऐसा मौका पाकर फिर भी अपना कल्याण नहीं हो तो तुलसीदासजी कहते हें-
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पायी |
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ || (रा.च.मा.उत्तर-४४)
अर्थ- जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से ना तरे, वह कृतघ्न और मंद-बुद्धि है और आत्महत्या करनेवाले की गति को प्राप्त होता है|
सो परत्र दुःख पावई सिर धुनी धुनी पछिताई |
कालही कर्मही इस्वरही मिथ्या दोष लगाई ||
अर्थ- वह परलोकमें दुख पाटा है, सीर पिट-पीटकर पछताता है तथा[अपना दोष ना समझकर] कालपर, कर्म पर और इश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है|
जिसके प्राण जा रहे हें, उसको भग्वद्विश्यक बात सुनाई जाए तो वह सबसे बढ़कर है | चाहे अपना कल्याण नहीं हो| निष्काम कर्मका थोडा-सा पालन महान भय से उद्धार कर देता है|
|| हरिः ॐ तत्सत् ||
[पुस्तक 'भग्वान्नाम महिमा एवं परम सेवा का महत्त्व' श्री जयदयाल जी गोयन्दका, गीता प्रेस गोरखपुर ] 
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गुरुवार, 24 मई 2012

नवधा भक्ति-अर्चन






श्रीमदभागवत में में कहा है --

'हे प्रभु ? जब तक लोग तुम्हारे अभय चरण कमलो का सच्चे हृधय से आश्रय नहीं लेते, तभी तक धन,घर ,मित्र आदि के निमित से भय , शोक, स्प्रहा , पराजय एवं महँ लोभ -- यह सब होते है और तभी तक सम्पूर्ण दुखो का मूल 'यह मेरा है' ऐसे ज्हुती धारणा रहती है अर्थात भगवान् की चरण शरण में आने पर यह सब नस्त हो जाते है |'(श्री मद भागवत ३||६)

'जिन्होंने संतो के आश्रनीय ,पवित्र यश वाले भगवान् के पद पल्लव रुपी जहाज का आश्रय लिया है ,उनके लिए संसार-सागर, बछड़े का पैर टिके इतना सा हो जाता है ,उन्हें पद पद पर परम पद प्राप्त है, इसलिए कभी भी उन्हें विपतियो के दर्शन नहीं होते |' (श्री मद भागवत १०|१४|५८)

'हे कमल नयन ! कई संत लोग सम्पूर्ण सत्व के धाम तुममे समाधी के द्वारा अपना चित तल्लीन करके महात्माओ के द्वारा अनुभूत तुम्हारे चरण कमलो का जहाज बना कर संसार सागर को गोवत्सपद के सामान पर कर जाते है |'

भगवन की चरण रज के शरण हुए प्रेमी भक्त तोह स्वर्गादी की तोह बात ही क्या है, मोक्ष तक का तिरस्कार कर चरण रज के सेवन से हे संलग्न रहना चाहते है |
नाग्पत्निया कहती है --
'आपकी चरण धुली के शरण ग्रहण कने वाले भक्तजन न स्वर्ग चाहते है, न चक्र्वर्तिता , न ब्रह्मा का पद , न सारी पृथ्वी का स्वामित्व और न योग सिद्धिय ही ;अधिक क्या ,वे मोक्ष पद के भी चाहना नहीं करते |' (श्री मद भागवत १०|१६|३७)

नवधा भक्ति - अर्चन

'जो लोग इस संसार में श्री भगवान् के अर्चा पूजा करते है ,वे श्री भगवान् के अविनाशी आनंद स्वरुप परम पद को प्राप्त हो जाते है |'
भगवान् के भक्तो से सुने हुए, सास्त्रो में पढ़े हुए, हतु आदि से बनी मूर्ती या चित्रपट के रूप में देखे हुए अपने मन को रुचने वाले किसी भी भगवान् के स्वरुप का बाह सामग्री से, भगवान् की किसी भी अपने अभिलासित स्वरुप के मानसिक मूर्ती बना कर मानसिक सामाग्रियो से अथवा सम्पूर्ण भूतो में परमात्मा को स्तिथ समजह कर सबका आदर सत्कार करते हुए यथा योग्य नानाविध उपचारों से सरधा भक्ति पूर्वक उनका सेवन पूजन करना और उनके तत्त्व, रहस्य तथा प्रभाव को समजह समजह कर प्रेम मुग्ध होना अर्चन भक्ति है |

पत्र , पुष्प, चन्दन आदि सात्विक , पवित्र और नायोपर्जित द्रव्यों से भगवान् की प्रतिमा का सरधा पूर्वक ,पूजन करना, भगवान् की प्रीती के लिए सस्त्रोक्त यज्ञादि करना,सबको भगवान् का स्वरुप समझ कर अपने वर्णाश्रम के अनुसार उनकी यथायोग्य सेवा करना तथा सत्कार, मान, पूजा आदि से संतुस्ट करना |


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बुधवार, 23 मई 2012

नवधा भक्ति- पाद सेवन



केवल इस पाद सेवन भक्ति से भी मनुष्य सम्पूर्ण दुराचार,दुर्गुण और दुःख सर्वदा नस्त हो जाते है और भगवान् में सहज ही अतिसय श्रधा और प्रेम होकर उसे आत्यंतिक
परमा शांति की प्राप्ती होती है | उसके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता |
सास्त्र और महात्माओ ने पाद सेवन भक्ति की बड़ी महिमा गई है | श्री संकराचार्य  कहते है की भगवान् की चरणकमल रुपी नौका ही संसार सागर से पार उतारने वाली है |
शिष्य-'हे कृपालु गुरुदेव ! आप कृपा करके  यह  बताये  के इस अपार संसार रुपी समुद्र में मुझ डूबते हुए के लिए सहारा क्या है ?
गुरु --'भगवान् विश्वेश्वर के चरण कमल रूप जहाज हे एकमात्र सहारा है |'
भगवान् के चरणोदक का पान करने से और उसी मस्तकपर धारण करने से भी कल्याण होता है |भगवान् श्री रामचंद्र जी का चरणामृत पीकर उन्हें नौका से उस पार ले जाते समय के प्रसंग में केवट की महिमा गाते हुए श्री तुलसीदास जी कहते है --
पद पखारी जलु पान करी आपु सहित परिवार |
पितर पारु करी प्रभुही पुनी मुदित गययु लेई पार ||
नित्य निरंतर प्रभु के चनो का दर्शन और सेवन करके पल पल में किस प्रकार आनंदित होना चहिये ,इसका श्री सीता जी है |वनगमन के समय आप भगवान् से कहती है -
छिनु छिनु  प्रभु पद कमल विलोकी | रहिहु मुदित दिवस जिमी कोकी ||
मोहि मग चलत होहही हारी | छिनु छिनु चरण सरोज निहारी ||
पाय पखारी बैठी तरु छाही | करिहहु बाऊ मुदित मन माही ||
सम माहि त्रिन तरु पल्लव डासि | पाय पालोटीही सब निशि दासी ||
भगवान् श्रीराम के चरण चिन्ह ,चरण रज और चरण पदुकोऊ  के दर्शन तथा सेवन से भरत जी को कितना आनंद प्राप्त होताहै और उनकी कैसे प्रेम तन्मय दशा होजात है |
भगवान् शिव के सब्दो में सुनिए ---
'वहा उन्होंने सब और श्री रामचंद्र के वज्र, अंकुश, कमल और ध्वजा अदि के चिन्नो से सुसोभित तथा पृथ्वी के लिए आती मंगलमय चरण चिन्न देखे,उन्हें देखकर भाई सत्रुघन के साथ वे उस चरण रज में लोटने लगे और मन ही मन कहने लगे --'अहो ! में पाम धन्य हु , जो आज भगवान् श्री रामचंद्र जी के उन चरणविन्दो के चिन्नो से विभूषित भूमि को देख रहा हु, जिनकी चरण रज को ब्रह्मा आदि देवता और श्रुतिया भी सदा खोजती रहती है |' (अध्यात्म रामायण ||-)
गोस्वामी  तुलसीदास जी कहते है --
रज सीर हिय नय्नन्हिई लावही | रघुवर मिलन सरिस सुख पावही ||
नित पूजत प्रभु पावरी प्रीती ना ह्रदय समाती |
माँगी मांगी आयसु करत राज काज बहुत भाती ||
अहिल्या भगवान् के चरण रज  को पाकर कृतार्थ हो जाती है और कहती है --
'हे जगनिवास ! आपके चरण कमलो में लगे हुए रज कणों का स्पर्श पाकर आज में कृतार्थ हो गयी | (अ० रा० ||४३)
अहो ! आपके जिन चरणों विन्दो का ब्रह्मा ,शंकर,आदि सदा चित लगा कर अनुसंधान किया करते है ,आज में उन्ही का स्पर्श कर रही हु |'
भगवानके चरणों का  आश्रय लेने से मनुष्य के सभ दोषों का नाश हो जाता है ,उसकी सारी विपती टल जाती है और वह गोपद के सामान संसार से तर जाता है |

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