※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 10 नवंबर 2012

ब्राह्मणत्व की रक्षा परम आवश्यक है |

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 ब्राह्मणों की इतनी महिमा गाने वाले शास्त्र ब्राह्मणों को सावधान करते हुए जो कुछ कहते है, उससे उनका पक्षपात रहित होना सिद्ध हो जाता है | शास्त्रकारो को पक्षपाती बतलाने वाले भाई नीचे लिखे शब्दों पर ध्यान दे-
जो ब्राह्मण तप और विद्या से हीन होकर दान लेने की इच्छा करता है वह उस दाता सहित इस प्रकार नरक में डूबता है जैसे पत्थर की नाव पर चढ़ा हुआ नाव सहित डूब जाता है | इसलिये अविद्वान ब्राह्मण को जैसे-तैसे प्रतिग्रह से डरना चाहिये; क्योंकि अनधिकारी अज्ञ ब्राह्मण थोड़े-से ही दान से कीच में फँसी गौ के सामान नरक में दुःख पाता है|’ (मनु० ४|१९०-१९१) अस्तु.
ऊपर के विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है की वर्णाश्रम-धर्म की रक्षा हिन्दू जाति के जीवन के लिये अत्याश्यक है और वर्णाश्रम की रक्षा के लिए ब्राह्मण की | ब्राह्मण का स्वरुप तप और त्याग में है और उस तप और त्याग पूर्ण ब्राह्मनत्व की पुन: जाग्रृति हो इसके लिये चारों वर्णों के धर्मप्रेमी पुरुषो को भरपूर चेष्टा करनी चाहिये | ब्राह्मण की अपने षटकर्मो पर श्रद्धा बढ़े, ब्रह्म चिंतन, संध्योपासना और गायत्री की सेवा में उसका मन लगे और वेदाध्ययन की ओर उसकी प्रवृति हो इसकी बड़ी आवश्यकता है और यह ब्राह्मण की सेवा-पूजा, सम्मान-दान आदि के द्वारा ब्राह्मणोंचित कर्मो के प्रति उसके मन में उत्साह उत्पन्न करने से ही हो सकता है |
यदि ब्राह्मणत्व जाग्रत हो गया और उसने फिर से अपना स्थान प्राप्त कर लिया तो ब्राह्मण फिर पूर्व की भांति जगतगुरु के पद पर प्रतिष्ठित हो सकता है| और मनु महाराज का यह कथन भी शायद सत्य हो सकता है
इस देश (भारतवर्ष) में उत्पन्न हुए ब्राह्मण से पृथ्वी पर सब मनुष्य अपना-अपना आचार सीखे |’(|२०)
इसपर यदि कोई कहे की यह तो अतीत युग के ब्राह्मणों के स्वरुप की और उन्ही की पूजा की बात है | वर्तमान काल में ऐसे आदर्श त्यागी ब्राह्मण कहाँ है जो उनकी सेवा-पूजा की जाए? तो इसका उत्तर यह है की अवश्य ही यह सत्य है कि ऐसे ब्राह्मण इस काल में बहुत ही कम मिलते है | कलियुग के प्रभाव, भिन्न धर्मी शासक, पाश्चात्य सभ्यता के कुसंग और जगत के अधार्मिक वातावरण आदि कारणों से इस समय केवल ब्राह्मण ही नहीं, सभी वर्णों में धर्मप्रेमी सच्चे आचारवान पुरुष कम मिलते है | परन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि हैं ही नहीं | बल्कि ऐसा कहना असंगत नहीं होगा की इस गये-गुजरे ज़माने में भी वेदाध्ययन करने वाले नि:स्पृही, त्यागी, सदाचारी, ईश्वर और धर्म में अत्यंत निष्ठा रखने वाले ब्राह्मण मिल सकते हैं |

       चारों ओर अनादर और तिरस्कार पाने पर भी आज ब्राह्मण वर्ण ने ही सनातन संस्कृति और सनातन संस्कृत भाषा को बना रखा है| भीख मांग कर भी ब्राह्मण आज संस्कृत पढ़ते है| शौचाचार की ओर देखा जाए तो भी यह कहना अत्युक्ति न होगा की क्षत्रिय,वैश्य और सूद्र वर्ण की अपेक्षा ब्राह्मणों में अपेक्षाकृत आज भी आचरण की पवित्रता कहीं अधिक है| ऐसी स्थिती में उनपर दोषारोपण न कर, उनकी निंदा न कर, उनसे घृणा न कर, उनकी यथा-योग्य सच्चे मन से सेवा करनी चाहिये जिससे वे पुन: अपने स्वरुप पर स्थित होकर संसार के सामने ब्राह्मणत्व का पवित्र आदर्श उपस्थित कर सके और उचित उपदेश और आदर्श आचरण के द्वारा समस्त जगत का इह्लोकिक और पारलौकिक कल्याण करते हुए उन्हें परमात्मा की ओर अग्रसर कर सके| सबसे मेरी यही विनीत प्रार्थना है |
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !

जयदयाल गोयन्दका, तत्व चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर