श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र कृष्ण, नवमी, गुरूवार, वि०
स० २०६९
महात्माओं के लक्षण
गत ब्लॉग से आगे... सर्वत्र सम दृष्टि होने के कारण
राग-द्वेषका अत्यन्त अभाव हो जाता है, इसलिए उनको प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में
हर्ष-शोक नहीं होता | सम्पूर्ण भूतों में आत्म-बुद्धि होने के कारण अपने आत्मा के
सद्र्श ही उनका प्रेम हो जाता है, इससे अपने और दुसरे के सुख-दुःख में उनकी
समबुद्धि हो जाती है और इसलिए वे सम्पूर्ण भूतो के हित में स्वाभाविक ही रत होते
है | उनका अंत:करण अति पवित्र हो जाने के कारण उनके ह्रदय में भय, शोक, उद्वेग,
काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दोषों का अत्यन्त अभाव हो जाता है | देह में अहंकार का
अभाव हो जाने से मान, बड़ाई और प्रतिष्ठा की इच्छा तो उनमे गन्ध मात्र भी नहीं रहती
| शांति, सरलता, समता, सुह्रिद्ता, शीतलता, सन्तोष, उदारता और दया के तो वे अनन्त
समुद्र होते है | इसलिए उनका मन सर्वदा पप्रफुल्ल्ति, प्रेम और आनन्द में मग्न और
सर्वथा शान्त रहता है |
महात्माओं के आचरण
देखने में उनके बहुत से आचरण दैवी
सम्पदावाले सात्विक पुरुषों-से होते है, परन्तु सूक्ष्म विचार करनेपर दैवी
सम्पदावाले सात्विक पुरुषोंकी अपेक्षा उनकी अवस्था और उनके आचरण कहीं महत्वपूर्ण
होते है | सत्य स्वरुप में स्थित होने के कारण उनका प्रत्येक आचरण सदाचार समझा
जाता है | उनके आचरण में असत्य के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता | उनका व्यक्तिगत
किन्चित भी स्वार्थ न रहने के कारण उनके आचरण में किसी भी दोष का प्रवेश नहीं हो
सकता, इसलिए उनके सम्पूर्ण आचरण दिव्य समझे जाते है |....शेष अगले ब्लॉग में
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—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!