|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र कृष्ण, एकादशी,शनिवार, वि०
स० २०६९
महात्माओं के आचरण
गत ब्लॉग से आगे... एक समय केशिनी-नाम्नी कन्या को
देखकर प्रह्लाद-पुत्र विरोचन और अंगिरा-पुत्र सुधन्वा उनके साथ विवाह करने के लिए
परस्पर विवाद करने लगे | कन्या ने कहा की ‘तुम दोनों में जो श्रेष्ठ होगा, मैं उसी
के साथ विवाह करुँगी |’ इसपर वे दोनों ही अपने को श्रेष्ठ बतलाने लगे | अंत में वे
परस्पर प्राणों की बाजी लगा कर इस विषय में न्याय करने के लिए प्रह्लाद जी के पास
गए | प्रह्लाद जी ने पुत्र के अपेक्षा धर्म को श्रेष्ठ समझकर यथोचित न्याय करते
हुए अपने पुत्र विरोचन से कहा की ‘सुधन्वा तुझसे श्रेष्ठ है, इसके पिता अंगिरा
मुझसे श्रेष्ठ है और इस सुधन्वा की माता तेरी माता से श्रेष्ठ है, इसलिए यह
सुधन्वा तेरे प्राणों का स्वामी है |’ यह न्याय सुनकर सुधन्वा मुग्ध हो गया और
उसने कहा ‘हे प्रह्लाद ! पुत्र-प्रेम को त्याग कर तुम धर्म पर अटल रहे, इसलिए
तुम्हारा यह पुत्र सौ वर्षो तक जीवित रहे |’ (महा० सभा० ६८|७६-७७)
महात्मा पुरुषों का मन और
इन्द्रियाँ जीती हुई होने के कारण न्यायविरुद्ध विषयों में तो उनकी कभी प्रवृति
नहीं होती | वस्तुत: ऐसे महातमाओ की दृष्टीमें एक सच्चिदानंदघन वासुदेवसे भिन्न
कुछ नहीं होने के कारण यह सब भी लीलामात्र ही है, तथापि लोकद्रष्टिमें भी उनके मन,
वाणी, शरीर से होने वाले आचरण परम पवित्र और लोकहितकर ही होते है | कामना, आसक्ति
और अभिमान से रहित होने के कारण उनके मन और इद्रियों द्वारा किया हुआ कोई भी कर्म
अपवित्र या लोकहानिकारक नहीं हो सकता | इसी से वे संसार में प्रमाणस्वरुप माने
जाते है | ....शेष अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!