॥श्रीहरिः॥
आज की शुभतिथि-पंचांग
वैशाख कृष्ण षष्ठी-सप्तमी, मंगलवार, वि० स० २०७०
जो
मनुष्य केवल यह समझता है कि "भगवान सत्य है और वे सब जगह है", उसे भगवान कैसे है , यह
ज्ञान नहीँ है, वह केवल इतना जानता है कि भगवान है।
परन्तु इतना निश्चय हो जाने पर उसके द्वारा कोई पाप क्रिया नहीँ हो सकती, क्योँकि वह समझता है कि "भगवान सत्य तथा सब जगह है, मैँ जो कुछ भी बोलता हूँ, भगवान सब सुनते है, जो कुछ चेष्टा करता हूँ भगवान सब देखते है।"
ऐसी अवस्था मेँ वह भगवान के विरुद्ध कैसे बोलेगा, कैसे कोई काम करेगा।
जो भगवान के विरुद्ध चलता या बोलता है , वह वास्तव मेँ भगवान को मानता ही नहीँ। जिसको यह विश्वास हो जाता है कि भगवान नित्य सर्वव्यापी है, उसमेँ निर्भयता आ जाती है। जब भगवान सब जगह है तब भय किस बात का ? इस निश्चय से ही उसमेँ धीरता, वीरता और गम्भीरता स्वत: ही आ जाती है। इसी निश्चय के कारण आगे चलकर उसे भगवान की प्राप्ति हो जाती है। "भगवान है" यह निश्चय होनेके बाद "भगवान कैसे है" इस बात को स्वँय उसे बता देते है। इस सत्य की उपासना से परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है; किँतु सत्यस्वरुप परमात्मा की उपासना करने वाले को कभी असत्य नहीँ बोलना चाहिये। उसका व्यवहार भी सत्य होना चाहिये तथा हृदय का भाव भी सत्य होना चाहिये। व्यवहार व भाव की सत्यता उसे कहते है, जिसकी क्रिया मेँ तथा जिसके बर्ताव में छल कपट दगा बेईमानी ठगी आदि कोई भी दूर्भाव ना हो। बर्ताव मेँ और आचरण मेँ शुद्ध नीयत हो और दूसरे की स्त्री को , दूसरे के धन को, जो धूल के समान ताज्य समझता हो। जो ऐसा है, उसी का व्यवहार और भाव शुद्ध है।हृदय के ऐसे शुद्ध भाव को ही सद्भाव कहते है। इसी को सद्गुण कहते है- मानसिक तप का यह प्रधान अंग है।
परन्तु इतना निश्चय हो जाने पर उसके द्वारा कोई पाप क्रिया नहीँ हो सकती, क्योँकि वह समझता है कि "भगवान सत्य तथा सब जगह है, मैँ जो कुछ भी बोलता हूँ, भगवान सब सुनते है, जो कुछ चेष्टा करता हूँ भगवान सब देखते है।"
ऐसी अवस्था मेँ वह भगवान के विरुद्ध कैसे बोलेगा, कैसे कोई काम करेगा।
जो भगवान के विरुद्ध चलता या बोलता है , वह वास्तव मेँ भगवान को मानता ही नहीँ। जिसको यह विश्वास हो जाता है कि भगवान नित्य सर्वव्यापी है, उसमेँ निर्भयता आ जाती है। जब भगवान सब जगह है तब भय किस बात का ? इस निश्चय से ही उसमेँ धीरता, वीरता और गम्भीरता स्वत: ही आ जाती है। इसी निश्चय के कारण आगे चलकर उसे भगवान की प्राप्ति हो जाती है। "भगवान है" यह निश्चय होनेके बाद "भगवान कैसे है" इस बात को स्वँय उसे बता देते है। इस सत्य की उपासना से परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है; किँतु सत्यस्वरुप परमात्मा की उपासना करने वाले को कभी असत्य नहीँ बोलना चाहिये। उसका व्यवहार भी सत्य होना चाहिये तथा हृदय का भाव भी सत्य होना चाहिये। व्यवहार व भाव की सत्यता उसे कहते है, जिसकी क्रिया मेँ तथा जिसके बर्ताव में छल कपट दगा बेईमानी ठगी आदि कोई भी दूर्भाव ना हो। बर्ताव मेँ और आचरण मेँ शुद्ध नीयत हो और दूसरे की स्त्री को , दूसरे के धन को, जो धूल के समान ताज्य समझता हो। जो ऐसा है, उसी का व्यवहार और भाव शुद्ध है।हृदय के ऐसे शुद्ध भाव को ही सद्भाव कहते है। इसी को सद्गुण कहते है- मानसिक तप का यह प्रधान अंग है।
—श्रद्धेय जयदयाल जी गोयन्दका-सेठजी , - परम साधन पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!