※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 5 मई 2013

तीर्थो में पालन करने योग्य कुछ उपयोगी बाते -४-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैसाख कृष्ण, वरूथिनी एकादशी (स्मार्त), रविवार, वि० स० २०७०

 
(५)       तीर्थों में बीड़ी, सिगरेट, तमाखू, गाँजा, भाँग, चरस, कोकीन, आदि मादक वस्तुओं का, लहसुन, प्याज, बिस्कुट, बर्फ, सोडा, लेमोनेड आदि अपवित्र पदार्थों का, ताश, चौपड़, शतरंज कहलना और नाटक-सिनेमा देखना आदि प्रमादका तथा गाली गलोज, चुगली-निन्दा, हँसी-मजाक, फ़ालतू बकवाद, आक्षेप आदि व्यर्थ  वार्तालाप का कतई त्याग करना चाहिये |

(६)        गंगा, यमुना और देवालय आदि तीर्थस्थानों से बहुत दूरी पर  मल-मूत्र का त्याग करना चाहिये | जो मनुष्य गंगा-यमुना आदि  के तटपर मल-मूत्र का त्याग करता है तथा गंगा-यमुना आदि में दतुअन और कुल्ले करता है, वह स्नान-पान के पुण्य को न पाकर पाप का भागी होता है |

(७)       काम-क्रोध, लोभ-मोह, मद-मात्सर्य, राग-द्वेष, दम्भ-कपट, प्रमाद-आलस्य आदि दुर्गुणों का तीर्थों में सर्वथा त्याग करना चाहिये |

(८)       सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख और अनुकूल-प्रतिकूल पदार्थों के प्राप्त होने पर उनको भगवान् का भेजा हुआ पुरस्कार मानकर सदा-सर्वदा प्रसन्नचित और संतुस्ट रहना चाहिये |

(९)       तीर्थयात्रा में अपने संगवालों में से किसी साथी तथा आश्रित को भारी विपति आने पर काम, क्रोध या भय के कारण उसे अकेले कभी नहीं छोड़ना चाहिये | महारज युद्धिस्टरने तो स्वर्ग का तिरस्कार करके परम धर्म समझकर अपने साथी कुत्ते का भी त्याग नहीं किया | जो लोग अपने किसी साथी या आश्रित के बीमार पड जानेपर उसे छोड़कर तीर्थ-स्नान और भगवदविग्रह के दर्शन आदि के लिए चले जाते है उनपर भगवान प्रसन न होकर उलटे नाराज हो जाते है; क्योकि ‘परमात्मा ही सबकी आत्मा है’ इस न्यास से उस आपदग्रस्त साथी का तिरस्कार परमात्मा का ही तिरस्कार है | इसलिए विपतिग्रस्त साथी का त्याग तो भूल कर भी नहीं करना चाहिए |....शेष अगले ब्लॉग

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!