॥श्री हरि:॥
शिक्षाप्रद
पत्र
सप्रेम राम-राम । आपका पत्र मिला
। आपने कई शंकाएँ की है, उनका उत्तर क्रमश: इस प्रकार
है------
१ गरीबों को
भगवान् ही बनाते हैं, यह आपका लिखना ठीक है । जो जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल भगवान् भुगतातें हैं एवं उनकी
सेवा करने के लिये भी कहते हैं । भगवान् ने ही गरीब
को बनाया है । इसका मतलब यह नहीं है कि वे बेचारे कष्ट पाते रहें एवं उनकी सेवा भी
न की जाय । सेवा का काम अपने लोगों के जिम्मे है ।
जैसे कोई चोरी-डकैती या बदमाशी करता है तो पुलिस द्वारा गवर्नमेंट उसे पर्याप्त
मात्रा में दण्ड दिलवाती है । अगर उस दोषी के कहीं घाव हो जाता है तो मलहम-पट्टी
के लिये लिये भी उचित व्यवस्था रहती है । मार-पीटकर ही नहीं छोड़ दिया जाता । इसी
प्रकार भगवान् उन्हें दण्ड भुगताने के लिये गरीबी देते हैं । उनकी सेवा का काम
दूसरों के जिम्मे है । जो सेवा करता है, उसे इसका अच्छा फल मिलता है, अत: सेवा करने वाले को तो कर्तव्य समझकर गरीबों कि सेवा ही करनी चाहिये ।
२ आपने मित्र भाव रखने
वाले एक व्यक्ति का उदाहरण दिया । आपने उसे दूकान करवायी और वह सब रूपया लेकर चंपत
हो गया, सो मालूम किया । इस घटना से आपके मन जो यह धारणा हो
गयी है कि किसी के साथ भला करने पर भी बुरा ही होता है,यह
ठीक नहीं है । आपके साथ कोई बुराई का व्यवहार करे तो आपको
बुरा नहीं मानना चाहिये । आपको तो उसके साथ अच्छे-से-अच्छा व्यवहार करना चाहिये । आपको अपने अच्छे कर्मका फल
मिलेगा एवं बुरा कर्म करने वाले को पाप भोगना पड़ेगा ।
‘जो तोकूँ काँटा बुवै ताहि बोय तूँ फूल ।‘
आपको इस उपर्युक्त पद्यवाक्य
के अनुसार ही करना चाहिये । साथ ही धोखा देनेवालों से
सावधान रहना चाहिये । कोई काँटा बने तो बने,
आपको तो फूल ही बनना चाहिये ।
३ आप कल्याण-अंक तथा गीता प्रेस
से पुस्तकें मँगाकर बराबर पढाते हैं, सो बहुत उत्तम बात है ।
यह भी लिखा कि संतोष नहीं हो रहा है, सो संतोष हो इसके लिये भगवान् के नाम का जप, स्वरुप का ध्यान, गीता-रामायण
का पाठ, स्तुति-प्रार्थना श्रद्धा -भक्तिपूर्वक निष्काम भाव
से नित्य-निरन्तर करते रहना चाहिये । इससे संतोष हो
सकता है ।
४ गीता पढ़ने के लिये आपकी हार्दिक इच्छा है एवं इसके लिये आप प्रयत्नशील भी है, सो उत्तम बात है । संस्कृत का आप शुद्ध उच्चारण नहीं कर पाते हैं, तो इसके लिये संस्कृत के किसी पंडित से गीता का शुद्ध उच्चारण करना सीख लेना चाहिये । नहीं तो, संस्कृत श्लोकों को छोड़कर केवल भाषा-ही-भाषा पढ़ लेनी चाहिये ।
आपकी शंकाओं का अपनी
साधारण बुद्धि के अनुसार उत्तर दे दिया गया । और भी कोई बात आप पूछना चाहें तो तो
नि:संकोच पूछ सकते हैं ।
नारायण
नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण........
—परम श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका, पुस्तक - शिक्षाप्रद पत्र कोड २८१ ,गीता प्रेस गोरखपुर
—परम श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका, पुस्तक - शिक्षाप्रद पत्र कोड २८१ ,गीता प्रेस गोरखपुर