|।श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
कार्तिक कृष्ण, चतुर्थी, बुधवार,
वि० स० २०७०
संध्या-गायत्री का महत्व -३-
गत ब्लॉग से आगे...यह शंका सर्वथा
निर्मूल नहीं है ।
ईश्वर की दृष्टी
में अवश्य
ही भाषा का कोई विशेष महत्व नहीं है । उनकी दृष्टि में सभी भाषायें सामान
है और सभी प्रार्थनाओ को वे सुनते है और उत्तर चाहने पर उसी भाषा में उसका उत्तर
भी देते है,
यह भी ठीक है की प्रार्थना में भाव की प्रधानता
है, उसका सम्बन्ध ह्रदय से है और अपने भावो से जितने स्पष्ट रूप
से हम अपनी मात्-भाषा
में रख सकते है । उतना स्पष्ट हम और किसी भाषा
में नहीं रख सकते ।
यह भी निर्विवाद है की ह्रदय की मूक प्रार्थना जितना काम कर
सकती है, केवल कुछ चुने हुए शब्दो के
उच्चारणमात्र से वह कार्य नहीं बन सकता ।
इन सब बातो को स्वीकार करते हुए भी हम संध्या को उसी रूप में करने के पक्षपाती है,
जिस रूप में उसको करने का शास्त्रों में विधान है और जिस रूप में उसको करने का
शास्त्रों में करने का विधान है और जिस रूप में लाखो-करोडो वर्षोसे, बल्कि आनादी
काल से हमारे पूर्वज करते आये है।
संध्या
में इश्वर की स्तुति, ध्यान और प्रार्थना है और उसके उतने अंश की पूर्ति अपनी मात्रभाषा में,
अपने ही शब्दों में की हुई मात्रभाषा में,
अपने ही शब्दों में की हुई प्रार्थना से भी अथवा ह्रदय की मूक प्रार्थना से भी हो
सकती है । जो
लोग इस रूप में प्रार्थना करना चाहते है अथवा करते है वे अवश्य ऐसा करे । उनका हम विरोध
नहीं करते है बल्कि ह्रदय से समर्थन ही करते है; क्योकि वैदिक-मंत्रो के उच्चारण
का सबको अधिकार भी नहीं है न सबका उनमे विश्वास ही है । अन्यान्य मत और मजहबों की भाँती सनातन वैदिक धर्म की मान्यता यह नहीं है की
मतावलम्बियो को इश्वर की प्राप्ति हो ही नहीं सकती, उनके लिए इश्वर का द्वार बंद
है । अधिकार न होने के कारण जो लोग वैदिक मंत्रो का उच्चारण
नहीं कर सकते अथवा जिनका वैदिक धर्म में विश्वास नहीं है वे लोग अपने-अपने ढंग की
प्रार्थना के द्वारा इश्वर की प्रसन्नता प्राप्त कर सकते है और जिन्हें वैदिक
संध्या करने का अधिकार प्राप्त है, वे लोग भी इस रूप में प्रार्थना कर सकते है;
परन्तु उन्हें संध्या का
परित्याग नहीं करना चाहिए । संध्या के साथ-साथ वे ईश्वर को रीझाने के लिए चाहे जितने और
साधन भी कर सकते है । ये सभी साधन एक दुसरे के सहायक ही है, कोई किसी से छोटा
अथवा बड़ा नहीं कहा जा सकता ।
यह
ठीक है की इश्वर की दृष्टि में भाषा का कोई विशेष महत्व नहीं है और वैदिक भाषा भी
अनन्य भाषाओ की भांति अपने हार्धिक अभिप्राय को व्यक्त करने का एक साधनमात्र है;
परतु वैदिक धर्मावलम्बियो की धारणा इस सम्बन्ध में कुछ दूसरी ही है । उनकी दृष्टि में वेद अपौरूषेय है, वे
किसी मनुष्य के द्वारा बनाए हुए नहीं है । वे साक्षात् इश्वर के नि:श्वाश है,
इश्वर की वाणी है , ‘यस्य
नि:स्वशिस्तम् वेदा:’ ।’ ऋषि लोग उनके दृष्टामात्र है - ‘ऋषयो मन्त्रद्रषटार: ।’
अनुभव करने वाले है, रचयिता नहीं । सृष्टि के आदि में भगवान नारायण
पहले-पहल ब्रह्मा को
उत्पन्न करते है और उन्हें वेदों का उपदेश देते है । इसलिए हम वैदिक
धर्मावलम्बियो के लिए वेद बड़े महत्व की वस्तु है । वेद ही ईश्वरीय ज्ञान
की अनादी स्रोत्र है ।
उन्ही से
सारा ज्ञान निकला है।
धर्म का आधार भी वेद ही है । हमारे कर्तव्य-अकर्तव्य के निर्णायक वेद ही
है ।
सारे शास्त्र
वेद की ही आधार को लेकर चलते है । स्मृति-आगम-पुराणादी शास्त्रों की प्रमाणता
वेदमूलक ही है । जहा श्रुति और स्मृति का परस्पर विरोध दृष्टिगोचर हो, वहाँ श्रुति को ही बलवान मन जाता है ।
तात्पर्य यह है की वेद हमारे सर्वस्व है, वेद
हमारे प्राण है, वेदों पर ही हमारा जीवन अवलंबित है, वेद ही हमारे आधार स्तम्भ है । वेदों की जितनी
भी महिमा गई जाय, थोड़ी है ।…शेष अगले
ब्लॉग में.
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!