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श्रीहरिः ।।
आज की शुभतिथि-पंचांग
पौष शुक्ल,षष्ठी, सोमवार, वि० स० २०७०
समाज के कुछ त्याग करने योग्य दोष -३-
- वेश-भूषा
वेश-भूषा
सादा, कम खर्चीला, सुरुचि उत्पन्न करने वाला, पवित्र और संयम बढाने होना चाहीये । आजकल
ज्यो-ज्यो फैशन बढ़ रहा है, त्यों-त्यों खर्च भी बढ़ रहा है । सादा मोटा वस्त्र किसी को पसंद नहीं
। जो खादी पहनते है उनमे भी एक तरह की बनावट आने लगी है । वस्त्रो में पवित्रता
होनी चाहिये । विदेशी और मिलों के बने वस्त्रो में चर्बी की माँड लगती है, यह बात
सभी जानते है । देश की हाथ की कारीगरी मिलों की प्रतियोगिताओ में नष्ट होती है ।
इससे गरीब मारे जाते है, इसलिए मिल के बने वस्त्र नहीं पहनने चाहिये । विदेशी वस्त्रो का व्यवहार तो देश की दरिद्रता का प्रधान कारण
है ही । रेशमी वस्त्र जीवित कीड़ो को उबाल कर उनसे निकाले हुए सूत से बनता
है, वह भी अपवित्र और हिंसायुक्त है ।
वस्त्रो
में सबसे उत्तम हाथ से काते हुए सूत की हाथ से बनी खादी है । परन्तु इसमें भी फैशन नहीं आना चाहिये ।
खादी हमारे संयम और स्वल्प व्यय के लिए है-फैशन और फिज्हूलखर्ची के लिए नहीं । खादी
में फैशन और फिज्हूलखर्ची आ जाएगी तो इसमें भी अपवित्रता आ जाएगी । मिल के बन हुए
वस्त्रो की अपेक्षा तो मिल के सूत से हाथ-करघे पर बने वस्त्र उत्तम है; क्योकी
उसके बुनाइ के पैसे गरीबो के घर में जाते है और उसमे चर्बी भी नहीं लगती ।
स्त्रियो
के गहनों में भी फैशन का जोर है । आजकल असली सोने के सादे गहने प्राय: नहीं बनाये
जाते । हलके सोने के और मोतीयो के फैशनेबल गहने बनाये जाते है, जिसमे मजदूरी जायदा
लगती है, बनवाते समय मिलावट का अधिक डर रहता है और जरुरत पड़ने पर बेचने के समय
बहुत ही कम कीमत मिलती है । पहले स्त्रियो के गहने ठोस सोने के होते थे, जो विपति
के समय काम आते थे । अब वह बात प्राय: चली गयी । इसी प्रकार कपड़ो में फैशन आ जाने
से कपडे ऐसे बनते है, जो पुराने होने पर किसी काम के नहीं आते और उनमे लगी हुई
जरी, सितारे, कलाबत्तू आदि के विशेष दाम मिलते है । ऐसे कपड़ो के बनवाने में जो
अपार समय और धन व्यर्थ जाता है सो तो जाता ही है ।
नये
पढ़े-लिखे बाबुओ और लडकियो में तो इतना
फैशन आ गया है की वे खर्च के मारे तंग रहने पर भी वेश-भूषा में खर्च कम नहीं कर
सकते । साथ ही सरीर की बनावट और सौंदर्य-वृद्धि की चीजे-साबुन, तेल, फुलेल, इतर,
एसेसंश, क्रीम, लैवेंडर, सेंट, पाउडर आदि इतने बरते जाने लगे है और उनमे एक-एक
व्यक्ति के पीछे इतने पैसे लगते है की उतने पैसो से एक गरीब गृहस्थी का काम चल
सकता है । इन चीजो के व्यवहार से आदत बिगडती है, अपवित्रता आती है और स्वास्थ्य भी
बिगड़ता है । धर्म की दृष्टि से तो ये सब चीजे त्याज्य है ही । एक बात और है,
सौदर्य की भावना में छिपी काम-भावना रहती है । जो स्त्री-पुरुष अपने को सुन्दर
दिखलाना चाहते है वे कामभाव का विस्तार बल, बुद्धि और वीर्य के नाश के द्वारा अपना
और समाज का बड़ा अपकार करते है ।.....शेष अगले ब्लॉग में ।
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!