※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 21 जून 2017

शिक्षाप्रद पत्र-१

|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि
आषाढ़ कृष्ण द्वादशी, बुधवार, वि०सं० २०७४

 शिक्षाप्रद पत्र-१  
        सादर हरिस्मरण | तुम्हारा पत्र व्यवस्थापक, गीताप्रेस के नाम से दिया हुआ मिला | संसार को अनित्य, क्षणभंगुर मानव-शरीर को दुर्लभ, विषयों को विषवत एवं भजन-साधन को अमृतवत समझते हुए भी तुम्हारी बुद्धि भ्रमित-सी हो रही है तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह—आधिपत्य जमाये बैठे हैं, लिखा, सो मालूम किया | बुद्धि का भ्रम दूर हो एवं काम-क्रोध, लोभ, मोह का समूल नाश हो जाय—नामोनिशान न रहे, इसके लिए ईश्वर का भजन-ध्यान श्रद्धा-भक्ति-पूर्वक नित्य-निरन्तर करने की तत्परता से चेष्टा करनी चाहिए | ऐसा करने से शनैः-शनैः भ्रम का नाश होकर काम-क्रोध, लोभ-मोह आदि दुर्गुणों का भी नाश हो सकता है | गीता-तत्त्वांक या गीता-तत्त्वविवेचनी टीका में अध्याय ९ श्लोक ३०-३१ और अध्याय १० श्लोक ९-१० और ११ की व्याख्या देखनी चाहिए |

           मन की चंचलता के विषय में कई बातें लिखीं और लिखा कि भगवन्नाम जप करते समय भी मन इधर-उधर चला जाता है, सो मालूम किया | इसके लिए भगवान् की शरण होकर रो-रोकर करुणभावपूर्वक भगवान् से स्तुति-प्रार्थना करनी चाहिए | जप करते समय मन इधर-उधर चला जाय तो इसके लिए सच्चा और वास्तविक दुःख होना चाहिए | संसार को नाशवान, क्षणभंगुर, दु:खरूप तथा अनित्य समझकर इससे वैराग्य करना चाहिए एवं भगवान् को सर्वगुणसंपन्न तथा आनन्द और शान्तिस्वरूप समझकर उनमें श्रद्धा और प्रेम बढ़ाना चाहिए | इस प्रकार करने से मन धीरे-धीरे संसार से हटकर परमात्मा की ओर लग सकता है | इन्द्रियों का तो इधर-उधर भागने का स्वभाव ही है, वे प्रमथनस्वभाववाली है; किन्तु उनपर अधिक-से-अधिक सावधानीपूर्वक नियंत्रण रखना चाहिए | मन-इन्द्रियों को अभ्यास और वैराग्य से वश में करना चाहिए | गीता-तत्त्वांक या गीता-तत्त्वविवेचनी टीका में अध्याय ६ श्लोक ३५ और ३६ की व्याख्या देखनी चाहिए |

          अपने स्वरुप को पहचानने एवं शान्ति मिलने का उपाय पूछा, सो इसके लिए गीताप्रेस से प्रकाशित पुस्तकों का स्वाध्याय करना चाहिए | ‘तत्त्वचिन्तामणि’ के सात और ‘परमार्थ-पत्रावली’ के चार भाग प्रकाशित हो चुके हैं, इनका स्वाध्याय करना चाहिए | इनके अध्ययन से आपकी शंकाओं का समाधान हो सकता है | सबसे यथायोग्य |
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श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी ‘शिक्षाप्रद पत्र’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर


 नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!