अपने सिद्धांत में दृढ़ रहें
अपना सिद्धान्त जो बनावे उसमें दृढ़ रहे। सिद्धान्त उद्देश्य बनता है।
सिद्धान्त मूल है। उद्देश्य ढाल है। क्रिया में जप,
ध्यान, स्वाध्याय एवं सत्संग हैं तथा भाव में
श्रद्धा एवं निष्काम प्रेम। भगवान् को हर समय याद रखना यह सबसे मूल्यवान् बात है। काम, क्रोध, लोभ, व्यभिचार दुर्गुण
हैं तथा नम्रता, प्रेम, सत्य भाषण आदि गुण हैं जप, ध्यान, सत्संग आदि करनेसे गुणों की वृद्धि होती है
एवं दुर्गुणों का नाश होता है।
प्रश्न-ध्यान नहीं होता है, केवल जप से यह हो सकता है क्या?
उत्तर-केवल
जप से हो सकता है। जप निष्काम होना चाहिये। श्रद्धा, प्रेम यदि साथ में हो तो और भी शीघ्र कार्य हो सकता
है। ध्यान साथ में रहे तो बहुत शीघ्र हो सकता है।
मान-बड़ाई
आदिका त्याग अपने यहाँ छोड़कर दूसरी जगह बहुत कम देखने में आता है। अपना सिद्धांत
बना लेनेपर वैसे ही करना चाहिये। जैसे डॉक्टर की औषधि मैं नहीं लेता। यदि डॉक्टर
कहे इसको लेने से शीघ्र लाभ होगा तो भी नहीं लेता। ऐलोपैथी औषधि लेने की अपेक्षा
नहीं लेना उत्तम है।
मनुष्य
में जितनी क्षमता है, वह उतना ही भगवान् के
समीप है। बीमारी में यदि ज्ञानी स्वस्थ हो रहा है तो
उसे हर्ष नहीं है, यदि
रोग बढ़ता है तो उसको शोक नहीं होता। वह दोनों
अवस्थाओं में समान रहता है।
दूसरों के दोष न देखने चाहिये, न कहने चाहिये, न सुनने चाहिये। ऐसा करने से उसके
पाप का हिसाब उसको ही भोगना पड़ेगा। इसमें तीन
दोष आते हैं। उन दोषों के संस्कार मन में जम जाते
हैं। जब वैसा वातावरण आता है तो वे संस्कार जाग्रत् होकर आपको उन बातों की याद आती
है, जिससे उसका पतन
होता है। उसके मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ
अशुद्ध हो जाते हैं।
गीता के एक श्लोक के अनुसार भी
जीवन बना ले,
उसी समय भगवान् मिल जायँ। यह जो संसार
आपको दीखता है, उसकी जगह भगवान् दीखने लग जाए । उसी समय
भगवत्-प्राप्ति है —
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥
(गीता ७ । १९)
बहुत
जन्मों के अन्त के जन्म में तत्त्व ज्ञान को
प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है-इस प्रकार मुझे भजता है, वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है।
भगवान्
से बढ़कर और कोई चीज नहीं है, इतनी बात मान लेनेपर
बेड़ा पार है। इसकी
पहचान क्या है?
यो मामेवमसम्मूढो जानाति
पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्धजति मां सर्वभावेन भारत॥
(गीता १५ । १९)
हे
भारत ! जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्व से पुरुषोत्तम जानता है,
वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकारसे से निरंतर
मुझ वासुदेव परमेश्वर को ही भजता है।
यस्य नाहंकृतो भावो
बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न
हन्ति न निबध्यते॥
(गीता १८। १७)
जिस पुरुष के अंतःकरण में 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि
सांसारिक पदार्थों में और कर्म में लिपायमान नहीं होती, वह
पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बँधता है।
स्त्री, पुत्र,
धन, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा की यदि मनमें इच्छा है तो वह अव्यभिचारिणी भक्ति नहीं है। भगवान्
केवल भगवान् के ही मिलने की तीव्र इच्छा होनेसे मिलते हैं।
संसार के पदार्थ इच्छा करनेसे
नहीं मिलते। केवल भगवान् ही ऐसे हैं जो इच्छा करनेसे मिलते हैं। तीव्र इच्छा हो जाय तो अन्य किसी साधन
की आवश्यकता नहीं है।
भगवान् के सिवाय यदि दूसरों को भजे तो भगवान्
को सबसे उत्तम कहाँ माना।
यदि आप मुझे सबसे बढ़कर महात्मा मानें तो फिर आपको दूसरे महात्मा की
आवश्यकता नहीं है। यदि दूसरे महात्मा की आवश्यकता
है तो आपने मुझे सबसे ऊँचा महात्मा कहाँ माना। अत: जो
पूरा लाभ होनेवाला है, वह
नहीं होगा, क्योंकि आपकी भावना पूरी नहीं है।