※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

सत्संग के मोती

Thursday, 20 October 2011
(कर्तिक कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

सत्संग के मोती
        भगवान की प्राप्तिके सिवा मनमेँ किसी भी बातकी इच्छा नहीँ रखनी चाहिए; क्योँकि कोई भी इच्छा रहेगी तो उसके लिए पुनर्जन्म धारण करना पड़ेगा। इसलिए इच्छा, वासना, कामना, तृष्णा आदिका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। बार-बार मन से पूछ लो कि 'बतला,तेरी क्या इच्छा है?' और मनसे यह उत्तर मिले कि 'कुछ भी इच्छा नहीँ है।' इस प्रकारके अभ्याससे इच्छाका नाश होता है। यह निश्चित बात है। - 'सत्संग की कुछ सार बातेँ' पुस्तक से
        जितना अज्ञान होता है उतनी स्थूलता होती है और जो पदार्थ जितना भारी होता है, वह उतना ही नीचे गिरता है,जितना हलका होता है उतना ही ऊपरको उठता है। अज्ञान ही बोझा है, जलके अत्यंत स्थूल होनेपर जब वह बर्फ बन जाता है तभी उसे नीचे गिरता पड़ता है, इसी प्रकार अज्ञानके बोझसे स्थूल हो जानेपर जीवको गिरना पड़ता है। ज्ञानरुपी तापके प्राप्त होते ही संसारका बोझ उतर जाता है और जैसे तापसे गलकर जल बननेपर और भी ताप प्राप्त होनेसे वह जल धूआँ या भाप होकर ऊपर उड़ जाता है, वैसे ही जीव भी ऊपर उठ जाता है। - 'कल्याणप्राप्ति के उपाय' (तत्त्वचिँतामणि भाग-1) पुस्तक से पृ॰सं॰64 
ईश्वरकी सत्तापर प्रत्यक्षसे बढ़कर विश्वास रक्खे; क्योँकि ईश्वरपर जितना प्रबल विश्वास होगा, साधक उतना ही पापसे बचेगा और उसका साधन तीव्र होगा। -
 कर्त्तव्यका पालन न होनेपर तथा अपनेसे बुरा काम बन जानेपर पश्चात्ताप करे, जिससे कि फिर कभी वैसा न हो। कर्त्तव्यकर्मको झंझट मान लेनेपर वह भार-रुप हो जाता है, विशेष लाभदायक नहीँ होता। वही कर्म भगवानको याद रखते हुए प्रसन्नतापूर्वक मुग्ध होकर किया जाय तो बहुत ऊँचे दर्जेका साधन बन जाता है। अकर्मण्यता (कर्त्तव्यसे जी चुराना) महान हानिकारक है। पापका प्रायश्चित है, किन्तु इसका नहीँ। अकर्मण्यताका त्याग ही इसका प्रायश्चित है। कर्त्तव्यपालनरुप परम पुरुषार्थ अर्थात भगवत्-शरणापन्न होकर प्रयत्न करना ही मुक्तिका मुख्य साधन है। - 'सत्संग की कुछ सार बातेँ' पुस्तक से।